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Bhagavad Gita chapter 1 text 37 38

Day 20 ( January 20 )

TEXTS 37-38

yady apy ete na paśyanti

lobhopahata-cetasaḥ

kula-kṣaya-kṛtaṁ doṣaṁ

mitra-drohe ca pātakam

kathaṁ na jñeyam asmābhiḥ

pāpād asmān nivartitum

kula-kṣaya-kṛtaṁ doṣaṁ

prapaśyadbhir janārdana

SYNONYMS

yadiif; apicertainly; etethey; nado not; paśyantisee; lobhagreed; upahataoverpowered; cetasaḥthe hearts; kula-kṣayain killing the family; kṛtamdone; doṣamfault; mitra-drohequarreling with friends; caalso; pātakamsinful reactions; kathamwhy; nashall not; jñeyamknow this; asmābhiḥby us; pāpātfrom sins; asmātourselves; nivartitumto cease; kula-kṣayathe destruction of a dynasty; kṛtamby so doing; doṣamcrime; prapaśyadbhiḥby those who can see; janārdanaO Kṛṣṇa.

TRANSLATION

O Janārdana, although these men, overtaken by greed, see no fault in killing one's family or quarreling with friends, why should we, with knowledge of the sin, engage in these acts?

PURPORT

A kṣatriya is not supposed to refuse to battle or gamble when he is so invited by some rival party. Under such obligation, Arjuna could not refuse to fight because he was challenged by the party of Duryodhana. In this connection, Arjuna considered that the other party might be blind to the effects of such a challenge. Arjuna, however, could see the evil consequences and could not accept the challenge. Obligation is actually binding when the effect is good, but when the effect is otherwise, then no one can be bound. Considering all these pros and cons, Arjuna decided not to fight.




अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1 . 37 - 38


यद्यप्येते न पश्यति लोभोपहतचेतसः |
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् || ३७ ||
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् |
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन || ३८ ||
 



यदि – यदि; अपि – भी; एते – ये; न – नहीं; पश्यति - देखते हैं; लोभ – लोभ से; उपहत – अभिभूत; चेतसः – चित्त वाले; कुल-क्षय – कुल-नाश; कृतम् – किया हुआ; दोषम् – दोष को; मित्र-द्रोहे – मित्रों से विरोध करने में; च – भी; पातकम् – पाप को; कथम् – क्यों; न – नहीं; ज्ञेयम् – जानना चाहिए; अस्माभिः – हमारे द्वारा; पापात् – पापों से; अस्मात् – इन; निवर्तितुम् – बन्द करने के लिए; कुल-क्षय – वंश का नाश; कृतम् – हो जाने पर; दोषम् – अपराध; प्रपश्यद्भिः – देखने वालों के द्वारा; जनार्दन – हे कृष्ण!
 

भावार्थ




हे जनार्दन! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते किन्तु हम लोग, जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पापकर्मों में क्यों प्रवृत्त हों?

 


 तात्पर्य

 



क्षत्रिय से यह आशा नहीं की जाती कि वह अपने विपक्षी दल द्वारा युद्ध करने या जुआ खेलने का आमन्त्रण दिये जाने पर मना करे | ऐसी अनिवार्यता में अर्जुन लड़ने से नकार नहीं सकता क्योंकि उसको दुर्योधन के दल ने ललकारा था | इस प्रसंग में अर्जुन ने विचार किया की हो सकता है कि दूसरा पक्ष इस ललकार के परिणामों के प्रति अनभिज्ञ हो | किन्तु अर्जुन को तो दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे थे अतः वह इस ललकार को स्वीकार नहीं कर सकता | यदि परिणाम अच्छा हो तो कर्तव्य वस्तुतः पालनीय है किन्तु यदि परिणाम विपरीत हो तो हम उसके लिए बाध्य नहीं होते | इन पक्ष-विपक्षों पर विचार करके अर्जुन ने युद्ध न करने का निश्चय किया |

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