Bhagavad Gita chapter 1 text 31
Day 17 ( January 17 )
TEXT 31
na ca śreyo 'nupaśyāmi
hatvā sva-janam āhave
na kāṅkṣe vijayaṁ kṛṣṇa
na ca rājyaṁ sukhāni ca
SYNONYMS
na—nor; ca—also; śreyaḥ—good; anupaśyāmi—do I foresee; hatvā—by killing; svajanam—own kinsmen; āhave—in the fight; na—nor; kānkṣe—do I desire; vijayam—victory; kṛṣṇa—O Kṛṣṇa; na—nor; ca—also; rājyam—kingdom; sukhāni—happiness thereof; ca—also.
TRANSLATION
I do not see how any good can come from killing my own kinsmen in this battle, nor can I, my dear Kṛṣṇa, desire any subsequent victory, kingdom, or happiness.
PURPORT
Without knowing that one's self-interest is in Viṣṇu (or Kṛṣṇa), conditioned souls are attracted by bodily relationships, hoping to be happy in such situations. Under delusion, they forget that Kṛṣṇa is also the cause of material happiness. Arjuna appears to have even forgotten the moral codes for a kṣatriya. It is said that two kinds of men, namely the kṣatriya who dies directly in front of the battlefield under Kṛṣṇa's personal orders and the person in the renounced order of life who is absolutely devoted to spiritual culture, are eligible to enter into the sun-globe, which is so powerful and dazzling. Arjuna is reluctant even to kill his enemies, let alone his relatives. He thought that by killing his kinsmen there would be no happiness in his life, and therefore he was not willing to fight, just as a person who does not feel hunger is not inclined to cook. He has now decided to go into the forest and live a secluded life in frustration. But as a kṣatriya, he requires a kingdom for his subsistence, because the kṣatriyas cannot engage themselves in any other occupation. But Arjuna has had no kingdom. Arjuna's sole opportunity for gaining a kingdom lay in fighting with his cousins and brothers and reclaiming the kingdom inherited from his father, which he does not like to do. Therefore he considers himself fit to go to the forest to live a secluded life of frustration.
अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण
श्लोक 1 . 31
न च श्रेयोSनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे |
न काड्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च || ३१ ||
न – न तो; च – भी; श्रेयः – कल्याण; अनुपश्यामि – पहले से देख रहा हूँ; हत्वा – मार कर; स्वजनम् – अपने सम्बन्धियों को; आहवे – युद्ध में; न – न तो; काङक्षे – आकांक्षा करता हूँ; विजयम् – विजय; कृष्ण – हे कृष्ण; न – न तो; च – भी; सुखानि – उसका सुख; च – भी |
भावार्थ
हे कृष्ण! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, मैं उससे किसी प्रकार कि विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ |
तात्पर्य
यह जाने बिना कि मनुष्य का स्वार्थ विष्णु (या कृष्ण) में है सारे बद्धजीव शारीरिक सम्बन्धों के प्रति यह सोच कर आकर्षित होने हैं कि वे ऐसी परिस्थितियों में प्रसन्न रहेंगे | ऐसी देहात्मबुद्धि के कारण वे भौतिक सुख के कारणों को भी भूल जाते हैं | अर्जुन तो क्षत्रिय का नैतिक धर्म भी भूल गया था | कहा जाता है कि दो प्रकार के मनुष्य परम शक्तिशाली तथा जाज्वल्यमान सूर्यमण्डल में प्रवेश करने के योग्य होते हैं | ये हैं – एक तो क्षत्रिय जो कृष्ण की आज्ञा से युद्ध में मरता है तथा दूसरा संन्यासी जो आध्यात्मिक अनुशीलन में लगा रहता है | अर्जुन अपने शत्रुओं को भी मारने से विमुख हो रहा है – अपने सम्बन्धियों कि बात तो छोड़ दें | वह सोचता है कि स्वजनों को मारने से उसे जीवन में सुख नहीं मिल सकेगा , अतः वह लड़ने के लिए इच्छुक नहीं है, जिस प्रकार कि भूख न लगने पर कोई भोजन बनाने को तैयार नहीं होता | उसने तो वन जाने का निश्चय कर लिया है जहाँ वह एकांत में निराशापूर्ण जीवन काट सके | किन्तु क्षत्रिय होने के नाते उसे अपने जीवननिर्वाह के लिए राज्य चाहिए क्योंकि क्षत्रिय कोई अन्य कार्य नहीं कर सकता | किन्तु अर्जुन के पास राज्य कहाँ है? उसके लिए तो राज्य प्राप्त करने का एकमात्र अवसर है कि अपने बन्धु-बान्धवों से लड़कर अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त करे जिसे वह करना नहीं चाह रहा है | इसीलिए वह अपने को जंगल में एकान्तवास करके निराशा का एकांत जीवन बिताने के योग्य समझता है |
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