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UTPANNA EKADASHI

उत्पत्ति एकादशी का व्रत हेमन all'avore इसकी कथा इस प्रकार है:
 
युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा : भगवन् ! Vuoi sapere cosa fare? इस संसार में वह क्यों पवित्र मानी गयी तथा देवताओं को कैसे प्रिय हुई?
 
श्रीभगवान बोले : कुन्तीनन्दन ! प्राचीन समय की बात है । सत्ययुग में मुर नामक दानव रहता था । वह बड़ा ही अदभुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओं के लिए भयंक थर था। उस कालरुपधारी दुरात्मा महासुर ने इन्द्र को भी जीत लिय लिया था। सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्ग से निकाले जा चुके थे और शंकित तथा भयभीत होकर पृथ्वी पर विचरा करते थे थे थे थे थे थे थे थे एक दिन सब देवता महादेवजी के पास गये । वहाँ इन्द्र ने भगवान शिव के आगे सारा हाल कह सुयाााा
 
इन्द्र बोले : महेश्वर ! ये देवता स्वर्गलोक से निकाले जाने के बाद पृथ्वी पर विचर रहे हैं हैं मनुष्यों के बीच रहना इन्हें शोभा नहीं देता । Sì! कोई उपाय बतलाइये । देवता किसका सहारा लें ?
महादेवजी ने कहा : देवराज ! जहाँ सबको शरण देनेवाले, सबकी रक्षा में तत all'avore a वे तुम लोगों की रक्षा करेंगे ।
 
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! महादेवजी की यह बात सुनकर परम बुद all'avore इन्द्र ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ।
 
इन्द्र बोले : देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है ! Sì! A me, a me, a me e a me आप ही सब लोगों की माता और आप ही इस जगत के पिता हैं देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं । पुण्डरीकाक्ष आप दैत्यों के शत्रु हैं । मधुसूदन ! हम लोगों की रक्षा कीजिये । प्रभो ! जगन्नाथ ! अत्यन्त उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत all'avore भगवन् ! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल देवता भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं । दानवों का विनाश करनेवाले कमलनयन ! भक्तवत्सल ! देवदेवेश्वर ! जनार्दन ! हमारी रक्षा कीजिये… रक्षा कीजिये । भगवन् ! शरण में आये हुए देवताओं की सहाययता कीजिये ।
 
इन्द्र की बात सुनकर भगवान विष्णु बोले : देवराज ! यह दानव कैसा है ? उसका रुप और बल कैसा है तथा उस दुष्ट के रहने का स्थान कहाँ है?
 
इन्द्र बोले: देवेश्वर ! पूर्वकाल में ब्र amici उसका पुत्र मुर दानव के नाम से विख्यात है । वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी और देवताओं के लिए भयंक भयंक है है चन्द्रावती नाम से प all'avore उस दैत्य ने समस्त देवताओं को परास्त करके उन्हें स all'avore उसने एक दूसरे ही इन्द्र को स all'avore अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं हैं जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ । उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं । देवताओं को तो उसने उनके प्रत्येक स्थान से वंचित कर दिया है है
 
इन्द्र की यह बात सुनकर भगवान जनार्दन को बडयॾ कॆदन को बडयॾ कॆऍन उन्होंने देवताओं को साथ लेकर चन all'avore भगवान गदाधर ने देखा कि “दैत all'avore अब वह दानव भगवान विष्णु को देखकर बोला : 'खडतरह रह … ़खला उसकी यह ललकार सुनकर भगवान के नेत्र क्रोध से लाऋ य वे बोले : ' अरे दुराचारी दानव ! मेरी इन भुजाओं को देख ।' यह कहकर श्रीविष event दानव भय से विह्लल हो उठे । पाण्ड्डनन्दन! तत्पश्चात् श्रीविष्णु ने दैत all'avore उससे छिन्न भिन्न होकर सैकड़ो योद्धा मौत के मुख में चले गये।
 
इसके बाद भगवान मधुसूदन बदरिकाश्रम को चले गये । वहाँ सिंहावती नाम की गुफा थी, जो बारह योजत ल८्बी ी पाण्ड्डनन्दन! उस गुफा में एक ही दरवाजा था । भगवान विष्णु उसीमें सो गये । वह दानव मुर भगवान को मार डालने के उद्योग में उनके पीछे पीछे तो लग लगा ही था। अत: उसने भी उसी गुफा में प्रवेश किया । वहाँ भगवान को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ । उसने सोचा : 'यह दानवों को भय देनेवाला देवता है । Titolo: नि:सन्देह इसे मार डालूँगा ।' युधिष्ठिर ! दानव के इस प्रकार विचार करते ही भगवान विष्णु के शरीर से एक कन्या प्रकट हुई, जो ही रुपवती, सौभागायश तथा दिवµ वह भगवान के तेज के अंश से उत्पन्न हुई थी । उसका बल और पराक्रम महान था । युधिष्ठिर ! दानवराज मुर ने उस कन्या को देखा । कन्या ने युद्ध का विचार करके दानव के साथ युद्ध के लिए याचना की युद्ध छिड़ गया । कन्या सब प्रकार की युद्धकला में निपुण थी । वह मुर नामक महान असुर उसके हुंकारमात्र से राख का ढेर हो गया। दानव के मारे जाने पर भगवान जाग उठे । उन्होंने दानव को धरती पर इस प्रकार निष all'avore a किसने इसका वध किया है ?'
 
कन्या बोली: स्वामिन् ! आपके ही प्रसाद से मैंने इस महादैत्य का वध किया है
 
श्रीभगवान ने कहा : कल्याणी ! तुम्हारे इस कर्म से तीनों लोकों मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं हैं हैं अत: तुम्हारे मन में जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार मुझसे कोई वर माँग लो लो देवदुर्लभ होने पर भी वह वर मैं तुम्हें दूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं नहीं है है
 
वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी।
 
उसने कहा: 'प्रभो! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपा से ती तीर्थों में प all'avore a जनार्दन ! जो लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिन उपव उपवास करेंगे, उन्हें सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त हो। माधव ! जो लोग उपवास, नक्त भोजन अथवा एकभुक्त करके मेरे व्रत का पालन करें, उन all'avore
 
श्रीविष्णु बोले: कल्याणी ! A proposito di questo, वह सब पूर्ण होगा ।
 
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! ऐसा वर पाकर महाव्रता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई । दोनों पक्षों की एकादशी समान रुप से कल्याई इसमें शुक्ल और कृष्ण का भेद नहीं करना चाहिए । यदि उदयकाल में थोड़ी सी एकादशी, मध्य में पूरी द all'avore a वह भगवान को बहुत ही प्रिय है । यदि एक 'त QIOME अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीय और चतुर्दशी - ये पू पूर्वतिथि से विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिए। परवर्तिनी तिथि से युक्त होने पर ही इनमें उपवास का विधान है है पहले दिन में और रात में भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रात: काल एकदण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथि का परित्याग करके दूसरे दिन की द्वादशीयुक्त एकादशी को ही उपवास करना चाहिए । यह विधि मैंने दोनों पक्षों की एकादशी के लिए बतयाायह
 
जो मनुष्य एकादशी को उपवास करता है, वह वैकुण्ठधाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान गरुड़ध्वज विराजमान रहते हते।।।।।।।।। हते हते हते हते हते हते हते हते tivamente जो मानव हर समय एकादशी के माहात्मय का पाठ करता है, उसे हजार गौदान के पुण all'avore जो दिन या रात में भक all'avore एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है ।



Suta Goswami disse: "O dotti brahmana, molto tempo fa il Signore Shri Krishna, Dio, la Persona Suprema, spiegò le glorie di buon auspicio di Shri Ekadashi e le regole e i regolamenti che governano ogni osservanza del digiuno in quel santo giorno. O migliore dei bramini, chiunque sente parlare delle origini e delle glorie di questi sacri digiuni nei giorni di Ekadashi va direttamente alla dimora del Signore Vishnu dopo aver goduto di molti diversi tipi di felicità in questo mondo materiale.
   Arjuna, il figlio di Prithaa, chiese al Signore: "O Janardana, quali sono i pii benefici del digiuno completo, del mangiare solo a cena o del mangiare solo una volta alla mezzogiorno di Ekadashi, e quali sono le regole per osservare i vari giorni di Ekadashi? Gentilmente raccontami tutto questo".
    Il Signore Supremo Krishna rispose: "O Arjuna, all'inizio dell'inverno (emisfero settentrionale), durante l'Ekadashi che cade durante la quindicina oscura del mese di Margasirsha (novembre-dicembre), un novizio dovrebbe iniziare la sua pratica di osservare un digiuno durante Ekadashi.Su Dasami, il giorno prima di Ekadashi, dovrebbe lavarsi bene i denti.Poi durante l'ottava parte di Dasami, proprio mentre il Sole sta per insieme, dovrebbe cenare.
    La mattina dopo il devoto dovrebbe fare voto, secondo le regole e i regolamenti, di osservare il digiuno. A mezzogiorno dovrebbe bagnarsi adeguatamente in un fiume, in un lago o in un laghetto. Un bagno in un fiume è più purificante, quello preso in un lago lo è meno, e un bagno in un piccolo stagno è il meno purificante. Se non è accessibile né un fiume, né un lago, né uno stagno, può fare il bagno con l'acqua del pozzo.
    Il devoto dovrebbe cantare questa preghiera contenente i nomi della Madre Terra: "O Asvakrante! O Rathakrante! O Vishnukrante! O Vasundhare! O Mrttike! O Madre Terra! Per favore rimuovi tutti i peccati che ho accumulato durante le mie molte vite passate in modo che io possa entrare nella sacra dimora del Signore Supremo." Mentre il devoto canta, dovrebbe cospargere di fango il suo corpo. "'Durante il giorno del digiuno il devoto non dovrebbe parlare con coloro che sono caduti dai loro doveri religiosi, con i mangiatori di cani, con i ladri o con gli ipocriti. Dovrebbe anche evitare di parlare con i calunniatori; con coloro che maltrattano gli esseri celesti, i letterature vediche, o brahmana, o con qualsiasi altra personalità malvagia, come coloro che hanno rapporti sessuali con donne proibite, coloro che sono noti saccheggiatori o coloro che derubano i templi. purificarsi guardando direttamente il sole.
    Poi il devoto dovrebbe adorare rispettosamente il Signore Govinda con cibo di prima classe, fiori e così via. Nella sua casa dovrebbe offrire al Signore una lampada in pura coscienza devozionale. dovrebbe anche evitare di dormire durante il giorno e dovrebbe astenersi completamente dal sesso. Digiunando da tutto il cibo e dall'acqua, dovrebbe cantare con gioia le glorie del Signore e suonare strumenti musicali per il Suo piacere per tutta la notte. Dopo essere rimasto sveglio tutta la notte nella pura coscienza, il devoto dovrebbe fare la carità ai brahmana qualificati e offrire loro i suoi umili omaggi, implorando il loro perdono per le sue offese.
    Coloro che prendono sul serio il servizio devozionale dovrebbero considerare gli Ekadashi che si verificano durante le settimane buie come quelli che si verificano durante le settimane luminose. O re, non si dovrebbe mai discriminare tra questi due tipi di Ekadashi.
    Per favore ascolta mentre descrivo i risultati ottenuti da chi osserva Ekadashi in questo modo. Né il merito che si riceve facendo il bagno nel sacro luogo di pellegrinaggio noto come Sankhoddhara, dove il Signore uccise il demone Sankhasura, né il merito che si riceve vedendo direttamente il Signore Gadadhara è pari a un sedicesimo del merito che si ottiene digiunando Ekadashi. Si dice che facendo la carità di lunedì con la luna piena si ottengono centomila volte i frutti della carità ordinaria. O vincitore di ricchezza, colui che fa la carità nel giorno del sankranti (equinozio) raggiunge quattrocentomila volte il risultato ordinario. Tuttavia, semplicemente digiunando in Ekadashi si ottengono tutti questi pii risultati, così come tutti i pii risultati che si ottengono a Kurukshetra durante un'eclissi di sole o di luna. Inoltre, l'anima fedele che osserva il digiuno completo durante Ekadashi ottiene un merito cento volte superiore a quello che compie un Asvamedha-yajna (sacrificio del cavallo). Chi osserva Ekadashi solo una volta guadagna dieci volte più meriti di una persona che dona mille mucche in beneficenza a un brahmana dotto nei Veda.
    Una persona che nutre un solo brahmacari guadagna dieci volte più meriti di una persona che nutre dieci buoni brahmana a casa sua. Ma si ottiene mille volte più merito di quello che si guadagna nutrendo un brahmacari donando la terra al brahmana bisognoso e rispettabile, e mille volte più di quello che si guadagna donando una ragazza vergine in sposa a un giovane, ben istruito, uomo responsabile. Dieci volte più vantaggioso di questo è educare correttamente i bambini sul sentiero spirituale, senza aspettarsi alcuna ricompensa in cambio. Dieci volte meglio di questo, tuttavia, è dare chicchi di cibo agli affamati. In effetti, fare la carità a chi è nel bisogno è la cosa migliore di tutte, e non c'è mai stata né mai ci sarà una carità migliore di questa. O figlio di Kunti, tutti gli antenati e gli esseri celesti in cielo diventano molto soddisfatti quando si donano cereali in carità. Ma il merito che si ottiene osservando un digiuno completo su Ekadashi non può essere misurato. O Arjuna, il migliore di tutti i Kuru, il potente effetto di questo merito è inconcepibile anche per gli esseri celesti, e metà di questo merito è raggiunto da chi consuma solo la cena in Ekadashi.
    Si dovrebbe quindi osservare il digiuno nel giorno di Lord Hari o mangiando solo una volta a mezzogiorno, astenendosi da cereali e fagioli; o digiunando completamente. I processi di rimanere nei luoghi di pellegrinaggio, fare la carità e compiere sacrifici del fuoco possono vantarsi solo finché Ekadashi non è arrivato. Perciò chiunque abbia paura delle miserie dell'esistenza materiale dovrebbe osservare Ekadashi. A Ekadashi non si dovrebbe bere acqua da una conchiglia, uccidere esseri viventi come pesci o maiali o mangiare cereali o fagioli. Così ti ho descritto, o Arjuna, il migliore di tutti i metodi di digiuno, come mi hai chiesto."
   Arjuna poi chiese: "O Signore, secondo Te, mille sacrifici vedici non equivalgono nemmeno a un digiuno di Ekadashi. Come può essere? Come è diventato Ekadashi il più meritorio di tutti i giorni?"
    Lord Shri Krishan rispose: "Vi dirò perché Ekadashi è il più purificatore di tutti i giorni. Nel Satya-Yuga viveva una volta un demone incredibilmente spaventoso chiamato Mura: Sempre molto arrabbiato, terrorizzò tutti gli esseri celesti, sconfiggendo persino Indra, il re del cielo, Vivasvan, il dio del sole, gli otto Vasu, Lord Brahma, Vayu, il dio del vento, e Agni, il dio del fuoco. Con il suo terribile potere li portò tutti sotto il suo controllo. Lord Indra si avvicinò quindi a Lord Shiva e disse: "Siamo tutti caduti dai nostri pianeti e ora stiamo vagando impotenti sulla terra. O Signore, come possiamo trovare sollievo da questa afflizione? Quale sarà il destino di noi semidei?" 
    Lord Shiva rispose: "O migliore degli esseri celesti, vai nel luogo in cui risiede Lord Vishnu, il cavaliere di Garuda. Egli è Jagannatha, il maestro di tutti gli universi e anche il loro rifugio. Egli è dedito a proteggere tutte le anime che si sono sottomesse a Lui."
    Il Signore Krishna continuò: "O Arjuna, vincitore della ricchezza, dopo che il Signore Indra udì queste parole del Signore Shiva, si diresse con tutti gli esseri celesti verso il luogo dove il Signore Jagannatha, il Signore dell'universo, il protettore di tutte le anime, stava riposando. Vedendo il Signore che dormiva sull'acqua, gli esseri celesti unirono le mani e, guidati da Indra, recitarono le seguenti preghiere: "'"O Dio, la Persona Suprema, tutti gli omaggi a Te O Signore dei signori, O Tu che sei lodato dai più importanti semidei, O nemico di tutti i demoni, O Signore dagli occhi di loto, O Madhusudana (uccisore del demone Madhu), ti preghiamo di proteggerci. Mura, noi semidei siamo venuti per prendere rifugio in Te. O Jagannatha, Tu sei colui che fa tutto e il creatore di tutto. Tu sei la madre e il padre di tutti gli universi. Tu sei il creatore, il sostenitore e il distruttore di Tu sei l'aiutante supremo di tutti gli esseri celesti, e solo Tu puoi farlo porta loro la pace. tu solo sei la terra, il cielo e il benefattore universale. Sei Shiva, Brahma e anche Vishnu, il sostenitore dei tre mondi. Siete gli dei del sole, della luna e del fuoco. Tu sei il burro chiarificato, l'oblazione, il fuoco sacro, i mantra, i rituali, i sacerdoti e il canto silenzioso del japa. Tu sei il sacrificio stesso, il suo sponsor e colui che gode dei suoi risultati, Dio, la Persona Suprema. Nulla in questi tre mondi, mobile o immobile, può esistere indipendentemente da Te. O Signore Supremo, Signore dei signori, Tu sei il protettore di coloro che si rifugiano in Te. O supremo mistico, o rifugio dei paurosi, salvaci e proteggici. Noi semidei siamo stati sconfitti dai demoni e siamo così caduti dal regno celeste. Privati delle nostre posizioni, o Signore dell'universo, ora stiamo vagando per questo pianeta terrestre."
    Lord Krishna continuò: "Dopo aver udito Indra e gli altri esseri celesti pronunciare queste parole, Shri Vishnu, Dio, la Persona Suprema, rispose: "Quale demone possiede una tale poteri dell'illusione che è stato in grado di sconfiggere tutti i semidei? Come si chiama e dove vive? Dove trova forza e riparo? Dimmi tutto, o Indra, e non temere."
    Il Signore Indra rispose: "O Divinità Suprema, o Signore dei signori, o Tu che sconfiggi la paura nei cuori dei Tuoi puri devoti, O Tu che sei così gentile per i tuoi fedeli servitori, c'era una volta un potente demone della dinastia Brahma il cui nome era Nadijangha, era straordinariamente temibile e totalmente dedito a distruggere gli esseri celesti, e generò un figlio infame di nome Mura.
   La grande capitale di Mura è Chandravati. Da quella base il terribilmente malvagio e potente demone Mura ha conquistato il mondo intero e ha portato tutti i semidei sotto il suo controllo, scacciandoli dal loro regno celeste. Ha assunto i ruoli di Indra, il re del cielo; Agni, il dio del fuoco; Yama, il signore della morte; Vayu, il dio del vento; Isha, o Signore Shiva; Soma, il dio della luna; Nairrti, il signore delle direzioni; e Pasi, o Varuna, il dio dell'acqua. Ha anche iniziato a emanare luce nel ruolo del dio del sole e si è trasformato anche lui nelle nuvole. È impossibile per i semidei sconfiggerlo. O Signore Vishnu, per favore uccidi questo demone e rendi vittoriosi gli esseri celesti."
    Sentendo queste parole da Indra, Lord Janardana si arrabbiò molto e disse: "O potenti semidei, tutti insieme potete ora avanzare verso la capitale di Mura, Chandravati". Incoraggiati in tal modo, gli esseri celesti riuniti procedettero verso Chandravati con Lord Hari in testa.
    Quando Mura vide i semidei, il primo dei demoni iniziò a ruggire molto forte in compagnia di innumerevoli migliaia di altri demoni, che impugnavano tutti armi scintillanti. I potenti demoni colpirono i semidei, che iniziarono ad abbandonare il campo di battaglia ea fuggire nelle dieci direzioni. Vedendo il Signore Supremo Hrsikesha, il maestro dei sensi, presente sul campo di battaglia, i demoni furiosi si precipitarono verso di Lui con varie armi in mano. Mentre attaccavano il Signore, che impugna una spada, un disco e una mazza, Egli trafisse immediatamente tutte le loro membra con le Sue frecce acuminate e velenose. così molte centinaia di demoni morirono per mano del Signore.
    Alla fine il capo dei demoni, Mura, iniziò a combattere con il Signore. Mura usò il suo potere mistico per rendere inutili le armi scatenate dal Signore Supremo Hrsikesa. In effetti, per il demone le armi sembravano fiori che lo colpivano. Quando il Signore non riuscì a sconfiggere il demonio nemmeno con armi di vario genere, sia da lancio che da mano, cominciò a combattere con le sue mani nude, che erano forti come bastoni di ferro. Il Signore lottò con Mura per mille anni celesti e poi, apparentemente stanco, partì per Badarikashrama. Lì Lord Yogeshvara, il più grande di tutti gli yogi, il Signore dell'universo, entrò in una bellissima grotta chiamata Himavati per riposare. O Dhananjaya, vincitore della ricchezza, quella grotta aveva un diametro di novantasei miglia e aveva un solo ingresso. Sono andato lì per paura, e anche per dormire. Non c'è dubbio su questo, o figlio di Pandu, perché la grande battaglia mi ha stancato molto. il demone Mi seguì in quella caverna e, vedendomi addormentato, iniziò a pensare nel suo cuore: "Oggi ucciderò questo uccisore di tutti i demoni, Hari".
    Mentre la malvagia Mura progettava in questo modo, dal Mio corpo si manifestò una fanciulla dalla carnagione molto luminosa. O figlio di Pandu, Mura vide che era equipaggiata con varie armi brillanti ed era pronta a combattere. Sfidato da quella donna a combattere, Mura si preparò e poi combatté con lei, ma rimase molto stupito quando vide che lei lo combatteva senza sosta. Il re dei demoni allora disse: "Chi ha creato questa ragazza arrabbiata e spaventosa che mi sta combattendo così potentemente, proprio come un fulmine che cade su di me?" Dopo aver detto questo, il demone ha continuato a combattere con la ragazza.
   All'improvviso quella dea fulgida frantumò tutte le armi di Mura e in un attimo lo privò del suo carro. Corse verso di lei verso l'aggressore a mani nude, ma quando lo vide arrivare gli tagliò la testa con rabbia. Così il demone cadde subito a terra e andò alla dimora di Yamaraja. Il resto dei nemici del Signore, per paura e impotenza, entrò nella regione sotterranea di Patala.
    Allora il Signore Supremo si svegliò e vide davanti a Lui la dimostrazione dei morti, così come la fanciulla che si inchinava davanti a lui con le mani giunte. Il suo volto esprimeva il suo stupore, il Signore dell'universo disse: "Chi ha ucciso questo malvagio demone? Ha sconfitto facilmente tutti i semidei, i Gandharva e persino lo stesso Indra, insieme ai compagni di Indra, i Marut, e ha anche sconfitto i Naga ( serpenti), i governanti dei pianeti inferiori. Mi ha persino sconfitto, facendomi nascondere in questa caverna per paura. Chi è che Mi ha protetto così misericordiosamente dopo che sono fuggito dal campo di battaglia e mi sono addormentato in questa caverna?"
    La fanciulla disse: "Sono io che ho ucciso questo demone dopo essere apparso dal Tuo corpo trascendentale. In verità, o Signore Hari, quando ti vide dormire volle ucciderti. Comprendendo l'intenzione di questa spina nel fianco dei tre mondi, ho ucciso il malvagio mascalzone e questo ha liberato tutti gli esseri celesti dalla paura. Io sono la tua grande maha-sakti, la tua potenza interna, che incute paura nei cuori di tutti i Tuoi nemici. Ho ucciso questo demone universalmente terrificante per proteggere i tre mondi. Per favore dimmi perché sei sorpreso di vedere che questo demone è stato ucciso, o Signore." Dio, la Persona Suprema, disse: "O persona senza peccato, sono molto soddisfatto di vedere che sei tu che hai ucciso questo re dei demoni. In questo modo hai reso gli esseri celesti felici, prosperi e pieni di beatitudine. Perché tu ho dato piacere a tutti gli esseri celesti nei tre mondi, sono molto contento di te. Chiedi qualsiasi favore tu possa desiderare, o di buon auspicio. Te lo darò senza dubbio, anche se è molto raro tra gli esseri celesti.
    La fanciulla disse: "O Signore, se sei soddisfatto di me e desideri darmi un vantaggio, dammi il potere di liberarmi dai peccati più grandi a colui che digiuna in questo giorno, desidero che la metà del pio credito ottenuto da chi digiuna vada a chi mangia solo la sera (astenendosi da cereali e fagioli), e che la metà di questo pio credito sia guadagnata da uno che mangia solo a mezzogiorno. Inoltre, chi osserva rigorosamente un digiuno completo nel giorno della mia apparizione, con i sensi controllati, può andare alla dimora del Signore Vishnu per un miliardo di kalpa dopo aver goduto di tutti i tipi di piaceri in questo mondo. Questo è il dono che desidero ottenere per la Tua misericordia, mio Signore, o Signore Janardana, sia che una persona osservi il digiuno completo, mangi solo la sera o mangi solo a mezzogiorno, per favore concedigli un atteggiamento religioso, ricchezza e finalmente liberazione. "
    Dio, la Persona Suprema, disse: "O signora molto propizia, ciò che hai chiesto è stato concesso. Tutti i Miei devoti in questo mondo digiuneranno sicuramente nel tuo giorno, e così diventeranno famosi in tutti e tre i mondi e alla fine verranno e rimarranno con Me nella Mia dimora.Poiché tu, Mia potenza trascendentale, sei apparsa l'undicesimo giorno della luna calante, lascia che il tuo nome sia di Ekadashi.Se una persona digiuna Ekadashi, brucerò tutti i suoi peccati e gli concederò la Mia dimora trascendentale. 
    Questi sono i giorni della luna crescente e calante che Mi sono più cari: Tritiya (il terzo giorno), Ashthami (l'ottavo giorno), Navami ( il nono giorno), Chaturdasi (il quattordicesimo giorno) e specialmente Ekadashi (l'undicesimo giorno). Il merito che si ottiene digiunando a Ekadashi è maggiore di quello ottenuto osservando qualsiasi altro tipo di digiuno o recandosi in un luogo di pellegrinaggio, e persino maggiore di quello ottenuto facendo la carità ai brahmana. Ti dico con la massima enfasi che questo è vero." Avendo così dato alla fanciulla la Sua benedizione, il Signore Supremo improvvisamente scomparve. Da quel momento in poi il giorno di Ekadashi divenne il più meritorio e famoso in tutto l'universo. O Arjuna, se una persona osserva rigorosamente Ekadashi, uccido tutti i suoi nemici e gli concedo la destinazione più alta.Infatti, se una persona osserva questo grande digiuno di Ekadashi in uno qualsiasi dei modi prescritti, rimuovo tutti gli ostacoli al suo progresso spirituale e gli concedo la perfezione della vita.
    Così, o figlio di Prtha, ti ho descritto l'origine di Ekadashi. Questo un giorno rimuove tutti i peccati eternamente. In effetti, è il giorno più meritorio per distruggere tutti i tipi di peccati, ed è apparso per beneficiare tutti nell'universo conferendo tutte le varietà di perfezione. Non si dovrebbe discriminare tra gli Ekadashi delle lune crescenti e calanti; entrambi devono essere osservati, o Partha, e non dovrebbero essere differenziati da Maha-Dvadashi. Chiunque digiuni da Ekadashi dovrebbe riconoscere che non c'è differenza tra questi due Ekadashi, perché comprendono lo stesso tithi.
   Chiunque digiuni completamente su Ekadashi, seguendo le regole e i regolamenti, raggiungerà la dimora suprema del Signore Vishnu, che cavalca Garuda. Sono gloriosi coloro che si dedicano al Signore Vishnu e trascorrono tutto il loro tempo studiando le glorie di Ekadashi. Colui che giura di non mangiare nulla a Ekadashi ma di mangiare solo il giorno successivo ottiene lo stesso merito di chi esegue un sacrificio di cavallo. Di questo non c'è alcun dubbio.
    A Dvadashi, il giorno dopo Ekadashi, si dovrebbe pregare: "O Pundarikaksha, o Signore dagli occhi di loto, ora mangerò. Per favore, proteggimi". Dopo aver detto questo, il saggio devoto dovrebbe offrire dei fiori e dell'acqua ai piedi di loto del Signore e invitare il Signore a mangiare cantando tre volte il mantra di otto sillabe. Se il devoto vuole ottenere il frutto del suo digiuno, allora dovrebbe bere l'acqua presa dal vaso santificato in cui ha offerto l'acqua ai piedi di loto del Signore.
   A Dvadashi bisogna evitare di dormire durante il giorno, mangiare a casa di un altro, mangiare più di una volta, fare sesso, mangiare miele, mangiare da un piatto di metallo , mangiare urad-dal e strofinare olio sul proprio corpo. Il devoto deve rinunciare a queste otto cose su Dvadashi. Se quel giorno vuole parlare con un emarginato, deve purificarsi mangiando una foglia di Tulasi o un frutto di amalaki. O migliore dei re, da mezzogiorno di Ekadashi fino all'alba di Dvadashi, ci si dovrebbe impegnare a fare bagni, adorare il Signore ed eseguire attività devozionali, tra cui la carità e l'esecuzione di sacrifici del fuoco. Se ci si trova in circostanze difficili e non si riesce a rompere correttamente il digiuno di Ekadashi su Dvadashi, lo si può rompere bevendo acqua, e poi non si ha colpa se si mangia di nuovo dopo.
    Un devoto del Signore Vishnu che giorno e notte ascolta questi argomenti di buon auspicio riguardanti il Signore dalla bocca di un altro devoto sarà elevato al pianeta del Signore e risiederà lì per dieci milioni di kalpa. E chi ascolta anche una sola frase sulle glorie di Ekadashi è liberato dalle reazioni a peccati come l'uccisione di un brahmana. Su questo non c'è dubbio. Per tutta l'eternità non ci sarà modo migliore di adorare il Signore Vishnu che osservare un digiuno a Ekadashi."
    Così termina la narrazione delle glorie di Margasirsa-krsna Ekadashi, o Utpanna Ekadashi, dal Bhavisya-uttara Purana.

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UTPANNA EKADASHI

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