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  • AMALAKI EKADASHI | ISKCON ALL IN ONE

    AMALAKI EKADASHI Inglese युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा : श्रीकृष्ा मुझे फाल्गुन मास के शुक all'avore भगवान श्रीकृष्ण बोले: महाभाग धर्मनन्दन ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम 'आमलकी इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति करानइलवॾा राजा मान्धाता ने भी महात्मा वशिष all'avore 'महाभाग! भगवान विष्णु के थूकने पर उनके मुख चन चन्द्रमा के समान कान्तिमान एक बिन्दु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा। उसीसे आमलक (आँवले) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है इसी समय प्रजा की सृष्टि करने के भगव भगवान ने ब्रह्माजी को उत उत्पन किया और ब्रहाम ने देवत द दानव, गन्धर Quali उनमें से देवता और ॠषि उस स all'avore महाभाग ! उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ क्योंकि उस वृक्ष के बारे में वे नहीं ज जानते थे उन्हें इस प्रकार विस्मित देख आकाशवाणी हुई: 'Ah! A causa di ciò che è successo, ho pensato che fosse così. इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है । स्पर्श करने से इससे दुगना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है यह सब पापों को हरनेवाला वैष्णव वृक्ष है । इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान रुद nello आमलक सर्वदेवमय है । अत: विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है । इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आमलक का सेवन करना चाहए ' ॠषि बोले : आप कौन हैं ? देवता हैं या कोई और ? हमें ठीक ठीक बताइये । पुन : आकाशवाणी हुई : जो सम्पूर्ण भूतों के कर्त्ता और समस्त भुवनों के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, मैं वही सनातन विष्णु हूँ। देवाधिदेव भगवान विष्णु का यह कथन सुनकर वे ॠषिगण भगवान की स्तुति करने लगे इससे भगवान श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले : 'महर्यषऋि! तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूँ ? ॠषि बोले : भगवन् ! यदि आप संतुष्ट हैं तो हम लोगों के हित के कोई ऐस ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरुपी फल प्रदान करनेवाला हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो श्रीविष्णुजी बोले : महर्षियो ! फाल्गुन म Schose इस दिन आँवले के वृक्ष के पास जाकर वहाँ रात्रि में जागरण करना चाहिए। इससे मनुष्य सब पापों से छुट जाता है और सहस all'avore विप्रगण ! यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम है, जिसे मैंने लोगों को बत बताया है ॠषि बोले : भगवन् ! इस व्रत की विधि बताइये । इसके देवता और मंत्र क्या हैं ? Cosa vuoi fare? उस समय स्नान और दान कैसे किया जाता है? भगवान श्रीविष्णुजी ने कहा : द्विजवरो ! इस एकादशी को व्रती प्रात: काल दन all'avore a हे अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दुसरे दिन भोजन करुँगग आप मुझे शरण में रखें ।' ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, गुरुपत्नीगामी तथा मर्यादा भंग करनेवाले मनुष्यों से वह वारताल न क क।। अपने मन को वश में रखते हुए नदी, पोखरे में, कुएँ पर अथवा घर में ही स्नान करे। स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाये । मृत्तिका लगाने का मंत्र अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुधन्् मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोटयां समर्जितम् ॥ वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था। ।rigur मृत्तिके ! मैंने करोड़ों जन्मों में जो पाप किये, मेरे उन सब पापों को ह लो।।।।।।।।। _cc781905-5cde-3194 -bb3b-136bad5cf58d_ _cc781905 -5cde-3194-bb3b-136bad5cf58d_ स्नान का मंत्र त्वं मात: सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम्। La risposta è: स्नातोSहं सर्वतीर्थेषु ह्रदप्रस्रवणेषु च्। नदीषु देवखातेषु इदं स्नानं तु मे भवेत्॥ 'जल की अधिष्ठात्री देवी! मातः ! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिए जीवन हो । वही जीवन, जो स्वेदज और उद्भिज्ज जाति के जीवों का भी cercando तुम रसों की स्वामिनी हो । तुम्हें नमस्कार है । आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरों में स्नान कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानों का फल देनेवाला हो _cc781905-5cde-3194 -bb3b-136bad5cf58d_ विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह परशुरामजी की सोने की प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी च चाहिए। स्नान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे । इसके बाद सब प्र amici वहाँ वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमि में मंत्रपाठपूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करे। कलश में पंचरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे । श्वेत चन्दन से उसका लेपन करे । उसके कण्ठ में फूल की माला पहनाये । सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाये । जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे । तात्पर्य यह है कि सब ओर से सुन्दर और मनोहर दृश्य उपस्थित करे। पूजा के लिए नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकख रररर कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे श्रेष्ठ लाजों (खीलों) से भर दे। फिर उसके ऊपर परशुरामजी की मूर्ति (सुवर्ण की) स्थापित करे। 'विशोकाय नम:' कहकर उनके चरणों की, 'विश्वरुपिणे नम:' से दोनों घुटनों की, 'उग्राय नम:' से जाँघो की, 'दामोदराय नम:' से कटिभाग की, 'पधनाभाय नम:' से उदर की, 'श्रीवत्सधारिणे नम:' से वक्ष: स्थल की, 'चक्रिणे नम:' से बायीं बाँह की, 'गदिने नम:' से दाहिनी बाँह की, 'वैकुण्ठाय नम:' से कण्ठ की, 'यज्ञमुखाय नम:' से मुख की, 'विशोकनिधये नम:' से नासिका की, 'वासुदेवाय नम:' से नेत्रों की, 'वामनाय नम:' से ललाट की, 'सर्वात्मने नम:' से संपूर्ण अंगो तथा मस्तक की जतक ये ही पूजा के मंत्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध फल द द्वारµere Questo è il seguente: नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोSस्तु ते । गृहाणार्ध्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे ॥ 'देवदेवेश्वर! जमदग्निनन्दन Non preoccuparti! आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आँवले के फल के साथ दिया हुआ मेरा यह अरbbiamo ग ग्रहण कीजिये।।।।।। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से जागरण करे । नृत्य, संगीत, वाघ, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णु संबंधी कथ कथा वार्ता आदि के द all'avore उसके बाद भगवान tiva फिर सवेरा होने पर श्रीहरि की आरती करे । ब्राह्मण की पूजा करके वहाँ की स सामग्री उसे निवेदित क क दे दे परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि: 'परशुामजी के स्वरुप में भगवान विष प पर परसन हों।' तत्पश्चात् आमलक का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स all'avore तदनन्तर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोतन र सम्पूर्ण तीर्थों के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने दे फल मिलता है, वह सब उपर्युक विधि के प प से से सुलभ सुलभ सुलभ है है समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है, इसमें तनिक भी संदेह संदेह नहीं है है यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है ।' वशिष्ठजी कहते हैं : महाराज ! इतना कहकर देवेश्वर भगवान विष्णु वहीं अन।तर्धह२ऋ तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियों ने उक्त व all'avore नृपश्रेष्ठ ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रत का अनुष्ठान करनि करना चााा भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्य को सब पापों से tiva Il re Mandhata una volta disse a Vasishtha Muni: "O grande saggio, sii gentilmente misericordioso con me e parlami di un santo digiuno che mi beneficerà eternamente". Vasishtha Muni ha risposto. “O re, ascolta gentilmente mentre descrivo il migliore di tutti i giorni di digiuno, Amalaki Ekadashi. Colui che osserva fedelmente un digiuno in questo Ekadashi ottiene un'enorme ricchezza, si libera dagli effetti di tutti i tipi di peccati e ottiene la liberazione. Digiunare in questa Ekadashi è più purificante che donare mille mucche in beneficenza a un puro brahmana. Quindi, per favore, ascoltami attentamente mentre ti racconto la storia di un cacciatore che, sebbene quotidianamente impegnato nell'uccisione di animali innocenti per vivere, raggiunse la liberazione osservando un digiuno ad Amalaki Ekadashi seguendo le regole e i regolamenti prescritti del culto. C'era una volta un regno chiamato Vaidisha, dove tutti i brahmana, kshatriya, vaishya e shudra erano ugualmente dotati di conoscenza vedica, grande forza fisica e raffinata intelligenza . Oh leone tra i re, l'intero regno era pieno di suoni vedici, nessuna persona era atea e nessuno peccava. Il sovrano di questo regno era il re Pashabinduka, un membro della dinastia di Soma, la luna. Era anche conosciuto come Chitraratha ed era molto religioso e sincero. Si dice che il re Chitraratha avesse la forza di diecimila elefanti e che fosse molto ricco e conoscesse perfettamente i sei rami della saggezza vedica. Durante il regno di Maharaja Chitraratha, nessuna persona nel suo regno tentò di praticare il dharma (dovere) di un altro; così perfettamente impegnati nei propri dharma erano tutti i brahmana, gli kshatriya, i vaisya e i sudra. Né avaro né povero si vedeva in tutto il paese, mai ci furono siccità o inondazioni. In effetti, il regno era esente da malattie e tutti godevano di buona salute. Il popolo rendeva amorevole servizio devozionale a Dio, la Persona Suprema, Sri Vishnu, così come il re, che rendeva anche un servizio speciale a Shiva. Inoltre, due volte al mese tutti digiunavano a Ekadashi. "In questo modo, o migliore dei re, i cittadini di Vaidisha vissero molti lunghi anni in grande felicità e prosperità. Rinunciando a tutte le varietà di religione materialistica, si dedicarono completamente al servizio amorevole del Signore Supremo, Hari." Una volta, nel mese di Phalguna (febbraio - marzo), arrivò il santo digiuno di Amalakii Ekadashi, congiunto con Dvadashi. Il re Chitraratha si rese conto che questo particolare digiuno avrebbe conferito un beneficio particolarmente grande, e quindi lui e tutti i cittadini di Vaidisha osservarono questo sacro Ekadashi molto rigorosamente, seguendo attentamente tutte le regole e i regolamenti. Dopo il bagno nel fiume, il re e tutti i suoi sudditi si recarono al tempio del Signore Vishnu, dove cresceva un albero di Amalaki. Per prima cosa il re ei suoi principali saggi offrirono all'albero un vaso pieno d'acqua, oltre a un bel baldacchino, scarpe, oro, diamanti, rubini, perle, zaffiri e incenso aromatico. Quindi adorarono il Signore Parashurama con queste preghiere: "Oh Signore Parashurama, oh figlio di Renuka, oh tutto gradito, oh liberatore dei mondi, vieni gentilmente sotto questo santo albero di Amalaki e accetta i nostri umili omaggi". Poi pregarono l'albero di Amalaki: "Oh Amalaki, oh progenie del Signore Brahma, tu puoi distruggere tutti i tipi di reazioni peccaminose. Per favore accetta i nostri rispettosi omaggi e questi umili doni. O Amalaki, tu sei in realtà la forma di Brahman e una volta erano adorati dal Signore Ramachandra stesso. Chiunque vi circondi è quindi immediatamente liberato da tutti i suoi peccati." Dopo aver offerto queste eccellenti preghiere, il re Chitraratha e i suoi sudditi rimasero svegli tutta la notte, pregando e adorando secondo le regole che regolano il sacro digiuno di Ekadashi. Fu durante questo periodo propizio di digiuno e preghiera che un uomo molto irreligioso si avvicinò all'assemblea, un uomo che manteneva se stesso e la sua famiglia uccidendo animali. Appesantito sia dalla fatica che dal peccato, il cacciatore vide il re e i cittadini di Vaidisha osservare Amalaki Ekadashi eseguendo una veglia notturna, digiunando e adorando il Signore Vishnu nella splendida cornice della foresta, che era brillantemente illuminata da molte lampade. Il cacciatore si nascose lì vicino, chiedendosi cosa fosse questo spettacolo straordinario davanti a lui. "Cosa sta succedendo qui?" pensò. Ciò che vide in quella bella foresta sotto il sacro albero di Amalaki era la Divinità del Signore Damodara adorata sull'Asana di un vaso d'acqua e sentì i devoti cantare canzoni sacre che descrivevano le forme e i passatempi trascendentali del Signore Krishna. Suo malgrado, quell'uccisore fermamente irreligioso di uccelli e animali innocenti trascorse l'intera notte con grande stupore mentre osservava la celebrazione di Ekadashi e ascoltava la glorificazione del Signore. Subito dopo l'alba, il re e il suo seguito reale - inclusi i saggi di corte e tutti i cittadini - completarono la loro osservanza di Ekadashi e tornarono nella città di Vaidisha. Il cacciatore tornò alla sua capanna e mangiò allegramente il suo pasto. A tempo debito il cacciatore morì, ma il merito che aveva guadagnato digiunando su Amalaki Ekadashi e ascoltando la glorificazione di Dio, la Persona Suprema, nonché essendo costretto a rimanere sveglio tutta la notte, lo rese idoneo a rinascere come un grande re dotato di molti carri, elefanti, cavalli e soldati. Il suo nome era Vasuratha, figlio del re Viduratha, e governava il regno di Jayanti. Il re Vasuratha era forte e senza paura, splendente come il sole e bello come la luna. Nella forza era come Shri Vishnu, e nel perdono come la Terra stessa. Molto caritatevole e veritiero, il re Vasuratha ha sempre reso amorevole servizio devozionale al Signore Supremo, Shri Vishnu. Divenne quindi molto esperto nella conoscenza vedica. Sempre attivo negli affari di stato, amava prendersi ottimamente cura dei suoi sudditi, come se fossero suoi figli. Non gli piaceva l'orgoglio per nessuno e lo distruggeva quando lo vedeva. Ha compiuto molti tipi di sacrifici e si è sempre assicurato che i bisognosi nel suo regno ricevessero abbastanza carità. Un giorno, mentre cacciava nella giungla, il re Vasuratha si allontanò dal sentiero e si perse. Vagando per un po' e alla fine stancandosi, si fermò sotto un albero e, usando le braccia come cuscino, si addormentò. Mentre dormiva, alcuni barbari lo raggiunsero e, ricordando la loro antica inimicizia nei confronti del re, iniziarono a discutere tra loro vari modi per ucciderlo. "È perché ha ucciso i nostri padri, madri, cognati, nipoti, nipoti e zii che siamo costretti a vagare senza meta come tanti pazzi nella foresta." Così dicendo, si prepararono a uccidere il re Vasuratha con varie armi, tra cui lance, spade, frecce e corde mistiche. Ma nessuna di queste armi mortali poteva nemmeno toccare il re addormentato, e presto gli uomini della tribù incivili e mangiatori di cani si spaventarono. La loro paura indeboliva le loro forze, e in poco tempo persero quel poco di intelligenza che avevano e divennero quasi incoscienti per lo smarrimento e la debolezza. All'improvviso una bellissima donna apparve dal corpo del re, sorprendendo gli aborigeni. Decorata con molti ornamenti, emettendo una meravigliosa fragranza, portando un'eccellente ghirlanda intorno al collo, le sopracciglia disegnate in uno stato d'animo di rabbia feroce e i suoi occhi rosso fuoco fiammeggianti, sembrava la morte personificata. Con il suo disco chakra ardente uccise rapidamente tutti i cacciatori tribali, che avevano cercato di uccidere il re addormentato. Proprio in quel momento il re si svegliò e, vedendo tutti i membri della tribù morti che giacevano intorno a lui, rimase sbalordito. Si chiese: "Questi sono tutti miei grandi nemici! Chi li ha uccisi così violentemente? Chi è il mio grande benefattore?" In quel preciso momento udì una voce dal cielo: "Hai chiesto chi ti ha aiutato. Bene, chi è quella persona che da sola può aiutare qualcuno è angoscia? Non è altro che Shri Keshava, Dio, la Persona Suprema, Colui che salva tutti coloro che si rifugiano in Lui senza alcun motivo egoistico". Dopo aver sentito queste parole, il re Vasuratha fu sopraffatto dall'amore per la Persona della Divinità Shri Keshava (Krishna). Tornò nella sua capitale e vi regnò come un secondo signore Indra (re delle regioni celesti), senza alcun ostacolo. Pertanto, o re Mandhata, concluse il venerabile Vasishtha Muni, “... chiunque osservi questo santo Amalaki Ekadashi raggiungerà senza dubbio la dimora suprema del Signore Vishnu, tanto grande è il merito religioso guadagnato dall'osservanza di questo giorno di digiuno santissimo. Così termina la narrazione delle glorie di Phalguna-sukla Ekadashi, o Amalaki Ekadashi, dal Brahmanda Purana. NOTA: Se l'albero di Amarlaki non è disponibile, adora il sacro albero di Tulsi. Pianta anche i sacri semi di Tulsi e offrile delle lampade. English AMALAKI EKADASHI

  • MOHINI EKADASHI | ISKCON ALL IN ONE

    MOHINI EKADASHI Inglese युधिष्ठिर ने पूछा: जनार्दन ! Hai bisogno di sapere cosa fare? उसका क्या फल होता है? Che cosa vuoi fare? भगवान श्रीकृष्ण बोले: धर्मराज ! पूर्वकाल में परम बुद all'avore श्रीराम ने कहा: भगवन् ! जो समस्त पापों का क्षय तथा सब प्रकार के दु: खों का निवारण करनेवाला, व्रतों में उत्तम व्रत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ हूँ वशिष्ठजी बोले: श्रीराम ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है । मनुष्य तुम्हारा नाम लेने से ही सब पापों से शुद्ध हो जाता है तथापि लोगों के हित की इच्छा से मैं पवित्रों में पवित all'avore वैशाख मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका नाम 'मोहिनी' है वह सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है । उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य मोहजाल तथा पातक समूह से छुटकारा पा जाते हैं सरस्वती नदी के रमणीय तट पर भद्रावती नाम की सुन्दर नगरी है वहाँ धृतिमान न Schose उसी नगर में एक वैश्य रहता था, जो ध धान्य से परिपूर्ण और समृद्धशाली था। उसका नाम था धनपाल । वह सदा पुण्यकर्म में ही लगा रहता था । दूसरों के लिए पौसला (प्याऊ), कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया करता था। भगवान विष्णु की भक्ति में उसका हार्दिक अनुराग थग वह सदा शान्त रहता था । उसके पाँच पुत्र थे: सुमना, धुतिमान, मेघावी, सुकृत तथा धृष्टबुद्धि। धृष्टबुद्धि पाँचवाँ था । वह सदा बड़े-बड़े पापों में ही संलग्न रहता था । जुए आदि दुर्व्यसनों में उसकी बड़ी आसक्ति थी । वह वेश्याओं से मिलने के लिए लालायित रहता था । उसकी बुद्धि न तो देवताओं के पूजन में थी और न पितरों तथा ब all'avore वह tiva एक दिन वह वेश्या के गले में बाँह डाले चौराहे पर घूमता देखा गया। तब पिता ने उसे घर से निकाल दिया तथा बन्धु बान्धवों ने भी उसका परित्याग कर दिया। अब वह hi एक दिन किसी पुण्य के उदय होने से वह महर्षि कौण all'avore वैशाख का महीना था । तपोधन कौण्डिन्य गंगाजी में स्नान करके आये थे । धृष्टबुद्धि शोक के भार से पीड़ित मुनिव मुनिवर कौण्डिन्य के पास गया और हाथ जोड़ सामने खड़ा होकर बोला: 'ब्रह्मन्! द्विजश्रेष्ठ ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्य के प all'avore कौण्डिन्य बोले: वैशाख के शुक all'avore 'मोहिनी' को उपवास करने पर प्राणियों के जन जन्मों के किये हुए मेरु पर्वत जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते | ' वशिष्ठजी कहते है: श्रीरामचन्द्रजी ! मुनि का यह वचन सुनकर धृष all'avore उसने कौण्डिन्य के उपदेश से विधिपूर्वक 'मोहिनी एकादशी' का व्रत किया। नृपश्रेष्ठ ! इस व्रत के करने से वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारण कर गरुड़ पर आरुढ़ हो प प्रकार के उपद्रवों से से श शrigीविष को को को को को को को को को को को को को को को सब सब प पlore को उपद उपद उपद उपद उपद से हित हित हित श श श ieri शendere इस प्रकार यह 'मोहिनी' का व्रत बहुत उत्तम है । इसके पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता हे Shri Yudhishthira Maharaja disse: "Oh Janardana, qual è il nome dell'Ekadashi che si verifica durante la quindicina di luce (Sukla paksha) del mese di Vaisakha (aprile-maggio)? questi dettagli per me." Dio, la Persona Suprema, Sri Krishna rispose: "O benedetto figlio del Dharma, ciò che una volta Vasishtha Muni disse a Sri Ramachandra ora ti descriverò. Per favore, ascoltami attentamente. Lord Ramachandra chiese a Vasishtha Muni: "Oh grande saggio, vorrei conoscere il migliore di tutti i giorni di digiuno, quel giorno che distrugge tutti i tipi di peccati e dolori . Ho sofferto abbastanza a lungo nella separazione dalla Mia cara Sita, e quindi desidero sentire da te come si può porre fine alla Mia sofferenza." Il saggio Vasishtha rispose: "Oh Signore Rama, Oh Tu la cui intelligenza è così acuta, semplicemente ricordando il Tuo nome si può attraversare l'oceano del mondo materiale. Mi hai interrogato per il bene di tutta l'umanità e per soddisfare i desideri di tutti.Descriverò ora quel giorno di digiuno che purifica il mondo intero. Oh Rama, quel giorno è noto come Vaisakha-sukla Ekadashi, che cade su Dvadashi. Rimuove tutti i peccati ed è famoso come Mohini Ekadashi. In verità, o caro Rama, il merito di questo Ekadashi libera l'anima fortunata che lo osserva dalla rete dell'illusione. Pertanto, se vuoi alleviare le tue sofferenze, osserva perfettamente questo buon auspicio Ekadashi, poiché rimuove tutti gli ostacoli dal proprio cammino e allevia le più grandi miserie. Si prega di ascoltare mentre descrivo le sue glorie, perché per chi sente anche solo parlare di questa Ekadashi di buon auspicio, i peccati più grandi sono annullati. Sulle rive del fiume Sarasvati c'era una volta una bellissima città chiamata Bhadravati, che era governata dal re Dyutiman. Oh Rama, quel re risoluto, veritiero e molto intelligente è nato nella dinastia della Luna (Chandra-vamsa). Nel suo regno c'era un mercante di nome Dhanapala, che possedeva una grande ricchezza di cereali e denaro. Era anche molto pio. Dhanapala fece scavare laghi, erigere arene sacrificali e coltivare splendidi giardini a beneficio di tutti i cittadini di Bhadravati. Era un eccellente devoto del Signore Vishnu e aveva cinque figli: Sumana, Dyutiman, Medhavi, Sukriti e Dhrishthabuddhi. Sfortunatamente, suo figlio Dhrishthabuddhi si è sempre impegnato in attività fortemente peccaminose, come dormire con prostitute e frequentare persone simili degradate. Gli piaceva il sesso illecito, il gioco d'azzardo e molte altre varietà di atti volti a gratificare i sensi. Mancava di rispetto agli esseri celesti (deva), ai bramini, agli antenati e agli altri anziani della comunità, così come agli ospiti della sua famiglia. Il malvagio Dhrishthabuddhi spendeva indiscriminatamente la ricchezza di suo padre, banchettando sempre con cibi intoccabili e bevendo alcolici in eccesso. Un giorno Dhanapala ha cacciato di casa Dhrishthabuddhi dopo averlo visto camminare lungo la strada a braccetto con una nota prostituta. Da quel momento in poi tutti i parenti di Dhrishthabuddhi furono molto critici nei suoi confronti e presero le distanze anche da lui. Dopo che ebbe venduto tutti i suoi ornamenti ereditati e divenne indigente, anche la prostituta lo abbandonò e lo insultò a causa della sua povertà. Dhrishthabuddhi ora era pieno di ansia e anche affamato. Pensò: "Cosa devo fare? Dove devo andare? Come posso mantenermi?" Poi ha cominciato a rubare. I poliziotti del re lo arrestarono, ma quando seppero chi era e che suo padre era il famoso Dhanapala, lo rilasciarono. È stato catturato e rilasciato in questo modo molte volte. Ma alla fine, stufo della sua arroganza e totale mancanza di rispetto per gli altri e per le loro proprietà, il maleducato Dhrishthabuddhi fu arrestato, ammanettato e poi picchiato. Dopo averlo frustato, i marescialli del re lo avvertirono: "O malvagio, non c'è posto per te in questo regno. Tuttavia, Dhrishthabuddhi fu liberato dalla sua tribolazione da suo padre e subito dopo entrò nella fitta foresta. Vagava qua e là, affamato e assetato e soffrendo molto. Alla fine iniziò a uccidere gli animali della giungla, i leoni, i cervi, i cinghiali e persino i lupi per il cibo. Sempre pronto nella sua mano era il suo arco, sempre sulla sua spalla era la sua faretra piena di frecce. Uccise anche molti uccelli, come chakora, pavoni, kanka, colombe e piccioni. Ha massacrato senza esitazione molte specie di uccelli e animali per mantenere il suo stile di vita peccaminoso, i cui risultati peccaminosi si accumulavano sempre di più ogni giorno. A causa dei suoi precedenti peccati, era ora immerso in un oceano di grande peccato che era così implacabile che sembrava che non potesse uscirne. Dhrishthabuddhi era sempre infelice e ansioso, ma un giorno, durante il mese di Vaisakha, grazie ad alcuni dei suoi meriti passati si imbatté nel sacro Ashrama di Kaundinya Muni. Il grande saggio aveva appena finito di fare il bagno nel fiume Gange e l'acqua gli gocciolava ancora. Dhrishthabuddhi ebbe la grande fortuna di toccare alcune di quelle goccioline d'acqua che cadevano dai vestiti bagnati del grande saggio. Immediatamente Dhrishthabuddhi fu liberato dalla sua ignoranza e le sue reazioni peccaminose furono ridotte. Offrendo i suoi umili omaggi a Kaundinya Muni, Dhrishthabuddhi lo pregò a mani giunte: "O grande brahmana, per favore descrivimi alcune delle espiazioni che posso compiere senza troppi sforzi. Ho commesso così tanti peccati nella mia vita, e questi mi hanno ora mi ha reso molto povero." Il grande rishi rispose: "Oh figlio, ascolta con grande attenzione, perché ascoltandomi la tua vita cambierà e sarai libero da tutti i tuoi peccati rimanenti Nella quindicina luminosa di questo stesso mese, Vaisakha (aprile-maggio) si verifica il sacro Mohinii Ekadashi, che ha il potere di annullare peccati vasti e pesanti come il Monte Sumeru.Se segui il mio consiglio e osserva fedelmente un digiuno in questo Ekadashi, che è così caro a Lord Hari, sarai liberato da tutte le reazioni peccaminose di molte, molte nascite." Sentendo queste parole con grande gioia, Dhrishthabuddhi promise di osservare un digiuno a Mohini Ekadashi secondo le istruzioni e le indicazioni del saggio. Oh migliore dei re, Oh Ramachandra Bhagavan, digiunando completamente su Mohini Ekadashi, il peccatore Dhrishthabuddhi, il figliol prodigo del mercante Dhanapala, divenne senza peccato. Successivamente raggiunse una bellissima forma trascendentale e, finalmente libero da tutti gli ostacoli, cavalcò sul portatore del Signore Vishnu, Garuda, fino alla dimora suprema del Signore. Oh Ramachandra, il giorno di digiuno di Mohini Ekadashi rimuove i più oscuri attaccamenti illusori all'esistenza materiale. Non c'è quindi giorno di digiuno migliore in tutti e tre i mondi di questo." Lord Shri Krishna concluse, "e così, Oh Yudhishthira, non c'è nessun luogo di pellegrinaggio, nessun sacrificio e nessuna carità che possa conferire meriti pari anche a uno sedicesimo del merito che un Mio fedele devoto ottiene osservando il Mohini Ekadashi. E Colui che ascolta e studia le glorie di Mohini Ekadashi ottiene il merito di donare mille mucche in beneficenza." Così termina la narrazione delle glorie di Vaisakha-sukla Ekadashi, o Mohini Ekadashi, dal Kurma Purana. APPUNTI: Se il santo digiuno cade su Dvadashi, è ancora chiamato Ekadashi nella letteratura vedica. Inoltre, nel Garuda Purana (1:125.6), il Signore Brahma afferma a Narada Muni: "Oh brahmana, questo digiuno dovrebbe essere osservato quando c'è un Ekadashi completo, una miscela di Ekadashi e Dwadashi, o una miscela di tre (Ekadashi, Dwadashi e Trayodasi) ma mai nel giorno in cui c'è una miscela di Dashami ed Ekadashi . Questo è sostenuto anche negli Hari Bhakti Vilas, Vaishnava smriti shastra, e sostenuto da Shrila Bhaktisiddhanta Saraswati Thakura Prabhupad nella sua introduzione al Navadwip Panjika. English MOHINI EKADASHI

  • ANNADA EKADASHI | ISKCON ALL IN ONE

    ANNADA EKADASHI Inglese युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद (गुजरात महारष carica के अनुस अनुसार श्रावण) मास के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? कृपया बताइये । भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! एकचित्त होकर सुनो । भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम 'अजा' ह। वह सब पापों का नाश करनेवाली बतायी गयी है । भगवान ह्रषीकेश का पूजन करके जो इसका व all'avore पूर्वकाल में हरिश्चन्दर नामक एक विख्यात चक all'avore a एक समय किसी कर्म का फलभोग प all'avore राजा ने अपनी पत्नी और पुत्र को बेच दिया । फिर अपने को भी बेच दिया । पुण्यात्मा होते हुए भी उन्हें चाण्डाल की दासता करनी पड़ी पड़ी वे मुर्दों का कफन लिया करते थे । इतने पर भी नृपश्रेष्ठ हरिश्द्र सत्य से विचलित नहीं हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए इस प्रकार चाण्डाल की दासता करते हुए उनके अनेक वर्ष व्यतीत हो गये गये इससे राजा को बड़ी चिन्ता हुई । Risposta: 'खी होकर सोचने लगे: 'क्या करुँ कहाँ जाऊँ? कैसे मेरा उद्धार होगा?' इस प्रकार चिन्ता करते-करते वे शोक के समुद्र ू में गडं राजा को शोकातुर जानकर महर्षि गौतम उनके पास आये । श्रेष्ठ ब्राह्मण को अपने पास आयµi राजा की बात सुनकर महर्षि गौतम ने कहा :'राजन्! भादों के कृष्णपक्ष में अत all'avore इसका व्रत करो । इससे पाप का अन्त होगा । तुम्हारे भाग्य से आज के सातवें दिन एकादशी है । उस दिन उपवास करके रात में जागरण करना ।' ऐसा कहकर महर्षि गौतम अन्तर्धान हो गये । मुनि की बात सुनकर राजा हरिश्चन्दर ने उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया। उस व्रत के प्रभाव से राजा सारे दु:खों से पार हो ग९ उन्हें पत्नी पुन: प्राप्त हुई और पुत्र का जीवन लय आकाश में दुन्दुभियाँ बज उठीं । देवलोक से फूलों की वर्षा होने लगी । एकादशी के प्रभाव से राजा ने निष्कण्टक राज्य प all'avore a राजा युधिष्ठिर ! जो मनुष्य ऐसा व all'avore इसके पढ़ने और सुनने से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलतई Shri Yudhishthira Maharaja disse: "Oh Janardana, protettore di tutti gli esseri viventi, per favore dimmi il nome dell'Ekadashi che cade durante la quindicina oscura del mese di Bhadrapada (agosto-settembre)." Il Signore Supremo, Shri Krishna, allora rispose: "Oh Re, ascoltami attentamente. Il nome di questa sacra Ekadashi che rimuove i peccati è Aja. Qualsiasi persona chi digiuna completamente in questo giorno e adora Hrishikesha, il maestro dei sensi, diventa libero da tutte le reazioni ai suoi peccati. Anche chi semplicemente sente parlare di questo Ekadashi è liberato dai suoi peccati passati. Oh Re, non c'è giorno migliore di questo in tutti i mondi terrestri e celesti Questo è senza dubbio vero. Una volta viveva un famoso re di nome Harishchandra, che era l'imperatore del mondo e una persona di grande verità e integrità. Il nome di sua moglie era Chandramati e aveva un figlio di nome Lohitashva. Per la forza del destino, tuttavia, Harishchandra perse il suo grande regno e vendette sua moglie e suo figlio. Lo stesso pio re divenne un umile servitore di un mangiatore di cani, che lo mise a guardia di un crematorio. Tuttavia, anche mentre svolgeva un servizio così umile, non ha abbandonato la sua sincerità e il suo buon carattere, proprio come il soma-rasa, anche se mescolato con qualche altro liquido, non perde la sua capacità di conferire l'immortalità. Il re passò molti anni in questa condizione. Poi un giorno pensò tristemente: "Cosa devo fare? Dove devo andare? Come posso essere liberato da questa situazione?" In questo modo è annegato in un oceano di ansia e dolore. Un giorno si presentò un grande saggio e quando il re lo vide pensò felice: "Ah, il Signore Brahma ha creato i bramini solo per aiutare gli altri". Harishchandra rese i suoi rispettosi omaggi al saggio, il cui nome era Gautama Muni. Con le mani giunte il re si fermò davanti a Gautama Muni e raccontò la sua pietosa storia. Gautama Muni rimase sbalordito nel sentire il racconto di dolore del re. Pensò: "Come è stato ridotto questo potente re a raccogliere vestiti dai morti?" Gautama Muni divenne molto compassionevole verso Harishchandra e lo istruì sul processo del digiuno per la purificazione. Gautama Muni disse: "Oh re, durante la quindicina oscura del mese di Bhadrapada si verifica un Ekadashi particolarmente meritorio chiamato Aja (Annada), che rimuove tutti i peccati. In verità, questo Ekadashi è così propizio che se semplicemente digiuni in quel giorno e non eseguire nessun'altra austerità, tutti i tuoi peccati saranno annullati. Per tua buona fortuna arriverà tra soli sette giorni. Quindi ti esorto a digiunare in questo giorno e rimanere sveglio tutta la notte. Se lo fai, tutte le reazioni del tuo i peccati del passato finiranno. Oh Harishchandra, sono venuto qui a causa delle tue pie azioni passate. Ora, buona fortuna a te per il futuro!" Così dicendo, il grande saggio Shri Gautama Muni scomparve immediatamente dalla sua visione. Il re Harishchandra seguì le istruzioni di Gautama Muni riguardo al digiuno nel sacro giorno di Aja Ekadashi. Oh Maharaja Yudhishthira, poiché quel giorno il re digiunò, le reazioni ai suoi precedenti peccati furono completamente distrutte in una volta. Oh leone tra i re, guarda l'influenza di questo veloce Ekadashi! Elimina immediatamente qualsiasi sofferenza si possa soffrire a causa delle passate attività peccaminose karmiche. Così tutte le miserie di Harishchandra furono alleviate. Proprio grazie al potere di questo meraviglioso Ekadashi, si riunì con sua moglie e suo figlio, che erano morti ma ora erano stati rianimati. Nelle regioni celesti i deva (semidei) iniziarono a battere sui loro timpani celesti e a far piovere fiori su Harishchandra, la sua regina e il loro figlio. Grazie alle benedizioni del digiuno di Ekadashi, riconquistò il suo regno senza difficoltà. Inoltre, quando il re Harishchandra lasciò il pianeta, anche i suoi parenti e tutti i suoi sudditi andarono con lui nel mondo spirituale. Oh Pandava, chiunque digiuni su Aja Ekadashi è sicuramente liberato da tutti i suoi peccati e ascende al mondo spirituale. E chiunque ascolti e studi le glorie di questo Ekadashi raggiunge il merito ottenuto compiendo un sacrificio di cavalli." Così termina la narrazione delle glorie di Bhadrapada-krishna Ekadashi, o Aja Ekadashi, dal Brahma-vaivarta Purana. English ANNADA EKADASHI

  • PAPAMOCHANI EKADASHI | ISKCON ALL IN ONE

    PAPAMOCHANI EKADASHI Inglese युधिष्ठिर महाराज ने भगवान श्रीकृष्ण से चैत्र (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार फाल्गुन ) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की तो वे बोले : 'राजेन्द्र ! मैं तुम्हें इस विषय में एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे चक all'avore a मान्धाता ने पूछा: भगवन् ! मैं लोगों के हित की इच्छा से यह सुनना चाहता हूँ कि चैत QI मास के कृष कृष्णपक nello कृपया ये सब बातें मुझे बताइये । लोमशजी ने कहा: नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकाल की बात है । अप्सराओं से सेवित चैत्रथ न Schose वे महर्षि चैत्रथ वन में रहकर ब all'avore मंजुघोषा मुनि के भय से आश्रम से एक दूर ही ठहर गयी और सुन्दर ढंग से वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी लगी मुनिश्रेष्ठ मेघावी घूमते हुए उधर जा निकले और उस सुन all'avore a मुनि की ऐसी अवस्था देख मंजुघोषा उनके समीप और वीणा नीचे nessuna मेघावी भी उसके साथ रमण करने लगे । रात और दिन का भी उन्हें भान न रहा । इस प्रकार उन्हें बहुत दिन व्यतीत हो गये । मंजुघोषा देवलोक में जाने को तैयार हुई । जाते समय उसने मुनिश्रेष्ठ मेघावी से कहा: 'ब्रहन्म! अब मुझे अपने देश जाने की आज्ञा दीजिये ।' मेघावी बोले: देवी ! जब तक सवेरे की संध्या न हो जाय तब तक मेरे ही पॾस ठ। अप्सरा ने कहा: विप्रवर ! अब तक न जाने कितनी ही संध्याँए चली गयीं ! मुझ पर कृपा करके बीते हुए समय का विचार तो कीजिये! लोमशजी ने कहा: राजन् ! अप्सरा की बात सुनकर मेघावी चकित हो उठे । उस समय tiva उसे अपनी tiva उन्होंने शाप देते हुए कहा: 'पापिनी! तू पिशाची हो जा ।' मुनि के शाप से दग्ध होकर वह विनय से नतमस्तक हो बोली: 'विप्रवर! मेरे शाप का उद्धार कीजिये । सात वाक्य बोलने या सात पद साथ साथ चलनेमात्र से ही सत्पुरुषों के साथ मैत्री हो जाती है है ब्रह्मन् ! मैं तो आपके साथ अनेक वर्ष व्यतीत किये हैं, अ।: विऍा मुझ पर कृपा कीजिये ।' मुनि बोले: भद्रे ! क्या करुँ ? तुमने मेरी बहुत बड़ी तपस्या नष्ट कर डाली है । फिर भी सुनो । चैत्र कृष्णपक्ष में जो एकादशी आती उसक उसका नाम है 'पापमोचनी।' वह शाप से उद्धार करनेवाली तथा सब पापों का क्षय करनेवाली है है सुन्दरी ! उसीका व्रत करने पर तुम्हारी पिशाचता दूर होगी । ऐसा कहकर मेघावी अपने पिता मुनिवर च्यवन करयश्रइमग उन्हें आया देख च्यवन ने पूछा : 'बेटा! यह क्या किया ? तुमने तो अपने पुण्य का नाश कर डाला !' मेघावी बोले: पिताजी ! मैंने अप्सरा के साथ रमण करने का पातक किया है । अब आप ही कोई ऐसा प all'avore च्यवन ने कहा: बेटा ! चैत्र कृष्णपक्ष में जो 'पापमोचनी एकादशी' आती है, उसका व्रत करने पर पापराशि का विनाश हो जायेगा। पिता का यह कथन सुनकर मेघावी ने उस व्रत का अनुष९ननााा इससे उनका पाप नष्ट हो गया और वे: तपस्या से परिपूर्ण हो गये गये इसी प्रकार मंजुघोषा ने भी इस उत्तम व्रत का पालन कि 'पापमोचनी' का व्रत करने के कारण वह पिशाचयोनि से मुक्त हुई और दिव्य रुपधारिणी श all'avore भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! जो श्रेष्ठ मनुष्य 'पापमोचनी एकादशी' का व all'avore इसको पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिईता हो ब्रह्महत्या, सुवर्ण की चोरी, सुरापान और गुरुपत्नीगमन करनेवाले महापातकी भी इस व्रत को करने से पापमुक्त हो जाते हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैंiato यह व्रत बहुत पुण्यमय है । Shri Yudhishthira Maharaja disse: "Oh Signore Supremo, ho sentito da Te la spiegazione di Amalaki Ekadashi che avviene durante la quindicina leggera del mese di Phalguna (febbraio-marzo), e ora desidero ascoltare dell'Ekadashi che avviene durante il quindicina oscura del mese di Chaitra (marzo-aprile). Qual è il suo nome, o Signore, e quali risultati si possono ottenere osservandolo?" Dio, la Persona Suprema, Sri Shri Krishna, rispose: "O migliore dei re, per il bene di tutti ti descriverò volentieri le glorie di questo Ekadashi, noto come Papamochani. La storia di questo Ekadashi fu narrata una volta all'imperatore Mandhata da Lomasa Rishi. Il re Mandhata si rivolse al Rishi, 'Oh grande saggio, per il bene di tutte le persone, per favore dimmi il nome dell'Ekadashi che cade durante la quindicina oscura del mese di Chaitra, e per favore spiegami il processo per osservarlo. Descrivi inoltre i benefici che si ottengono osservando questo Ekadashi. Lomasa Rishi rispose: "L'Ekadashi che si verifica durante la parte oscura del mese di Chaitra si chiama Papamochanii Ekadashi. Per il fedele devoto rimuove le influenze dei fantasmi e demoni. Oh leone tra gli uomini, questo Ekadashi premia anche le otto perfezioni della vita, soddisfa tutti i tipi di desideri, purifica la propria vita da tutte le reazioni peccaminose e rende una persona perfettamente virtuosa." Ora per favore ascolta un resoconto storico riguardante questo Ekadashi e Chitraratha, il capo dei Gandharva (musicisti celesti). Durante la stagione primaverile, in compagnia di ballerine celestiali, Chitraratha si imbatté una volta in una bellissima foresta che esplodeva con una grande varietà di fiori. Lì lui e le ragazze si unirono ai Gandharva e a molti Kinnara, insieme allo stesso Lord Indra, il re del cielo, che si stava godendo una visita lì. Tutti pensavano che non esistesse un giardino migliore di questa foresta. Erano presenti anche molti saggi, che compivano le loro austerità e penitenze. Agli esseri celesti piaceva particolarmente visitare questo giardino celeste durante i mesi di Chaitra e Vaisakha (aprile-maggio). Un grande saggio di nome Medhavi risiedeva in quella foresta, e le ballerine molto attraenti tentavano sempre di sedurlo. Una ragazza famosa in particolare, Manjughosha, escogitò molti modi per sedurre l'esaltato Muni, ma per grande rispetto per la saggezza e l'impresa del suo potere, che aveva raggiunto dopo anni e anni di ascetismo, non si avvicinò molto a lui . In un punto a due miglia dal saggio, piantò una tenda e cominciò a cantare molto dolcemente mentre suonava un tamburo. Lo stesso Cupido si eccitò quando la vide e la sentì esibirsi così bene e annusò la fragranza del suo unguento a base di pasta di sandalo. Ricordò la sua sfortunata esperienza con Lord Shiva e decise di vendicarsi seducendo Medhavi. (vedi nota 1) Usando le sopracciglia di Manjughosha come un arco, i suoi sguardi come una corda, i suoi occhi come frecce e i suoi seni come un bersaglio, Cupido si avvicinò a Medhavi per tentarlo a rompere la sua trance e i suoi voti. In altre parole, Cupido ha assunto Manjughosha come suo assistente, e quando ha guardato quel giovane saggio potente e attraente, anche lei è diventata agitata dalla lussuria. Vedendo che era molto intelligente e istruito, indossava un filo di brahmana bianco pulito drappeggiato sulla spalla, reggeva un bastone da sannyasi e sedeva magnificamente nell'asrama di Chyavana Rishi, Manjughosha si presentò davanti a lui. Cominciò a cantare in modo seducente, ei campanellini della cintura e intorno alle caviglie, insieme ai braccialetti ai polsi, producevano una deliziosa sinfonia musicale. Il saggio Medhavi era incantato. Capì che questa bellissima giovane donna desiderava l'unione con lui, e in quell'istante Cupido aumentò la sua attrazione per Manjughosha rilasciando le sue potenti armi di gusto, tatto, vista, olfatto e suono. Lentamente Manjughosha si avvicinò a Medhavi, attirandolo con i suoi movimenti del corpo e i suoi dolci sguardi. Posò con grazia il suo tamburello e abbracciò il saggio con le sue due braccia, proprio come un rampicante si avvolge attorno a un albero robusto. Affascinato, Medhavi rinunciò alla sua meditazione e decise di divertirsi con lei e all'istante la sua purezza di cuore e di mente lo abbandonò. Dimenticando persino la differenza tra la notte e il giorno, se ne andò con lei a divertirsi per molto, molto tempo. (vedi nota 2) Vedendo che la santità del giovane yogi era stata seriamente erosa, Manjughosha decise di abbandonarlo e tornare a casa. Lei disse. "O grande, permettimi di tornare a casa." Medhavi rispose: "Ma sei appena arrivata, o bella. Ti prego, resta con me almeno fino a domani."_cc781905-5cde-3194-bb3b- 136bad5cf58d_ Timoroso del potere yogico del saggio, Manjughosha rimase con Medhavi esattamente cinquantasette anni, nove mesi e tre giorni, ma a Medhavi tutto questo tempo sembrò un momento. Di nuovo lei gli chiese: "Per favore, permettimi di andarmene". Medhavi rispose: "O mio caro, ascoltami. Resta con me ancora una notte, e poi potrai partire domani mattina. Resta con me fino a Ho svolto i miei doveri mattutini e ho cantato il sacro Gayatri mantra. Per favore, aspetta fino ad allora." Manjughosha aveva ancora paura del grande potere yogico del saggio, ma si costrinse a sorridere e disse: "Quanto tempo ci vorrà per finire i tuoi inni e rituali mattutini? Per favore sii misericordioso e pensa a tutto il tempo che hai già trascorso con me. Il saggio rifletté sugli anni in cui era stato con Manjughosha e poi disse con grande stupore. Perché, ho passato più di cinquantasette anni con te! I suoi occhi diventarono rossi e cominciarono ad emanare scintille. Ora considerava Manjughosha come la morte personificata e il distruttore della sua vita spirituale. Donna mascalzone! Hai ridotto in cenere tutti i sudati risultati delle mie austerità! Tremando di rabbia, maledisse Manjughosha: "Oh peccatore, oh duro di cuore, degradato! Tu conosci solo il peccato! Possa tutta la tua terribile fortuna! Oh donna mascalzone, ti maledico per diventare un malvagio hobgoblin - pishacha!"_cc781905 -5cde-3194-bb3b-136bad5cf58d_ Maledetto dal saggio Medhavi, il bellissimo Manjughosha lo implorò umilmente: "Oh migliore dei brahmana, per favore sii misericordioso con me e revoca la tua maledizione! Oh grande , si dice che l'associazione con i puri devoti dia risultati immediati, ma le loro maledizioni hanno effetto solo dopo sette giorni. Sono stato con te per cinquantasette anni, oh maestro, quindi per favore sii gentile con me!" Medhavi Muni rispose: "Oh gentile signora, cosa posso fare? Hai distrutto tutte le mie austerità. dirti un modo in cui puoi essere liberato dalla mia ira. Nella quindicina oscura del mese di Chaitra c'è un Ekadashi di buon auspicio che rimuove tutti i propri peccati. Il suo nome è Papamochani, Oh bella, e chiunque digiuni in questo giorno sacro diventa completamente libera dal dover nascere in qualsiasi tipo di forma diabolica." 'Con queste parole, il saggio partì immediatamente per l'Ashram di suo padre. Vedendolo entrare nell'eremo, Chyavana Muni disse: "Oh figlio, agendo illegalmente hai sperperato la ricchezza delle tue penitenze e austerità". Medhavi rispose: "Oh Padre, rivela gentilmente quale espiazione devo compiere per rimuovere l'odioso peccato che ho commesso frequentando privatamente la danzatrice Manjughosha. Chyavana Muni rispose: "Caro figlio, devi digiunare a Papamochani Ekadashi, che cade durante la quindicina oscura del mese di Chaitra. Sradica tutti i peccati, no importa quanto possano essere dolorose. Medhavi seguì il consiglio di suo padre e digiunò con Papamochani Ekadashi. Così tutti i suoi peccati furono distrutti e fu nuovamente riempito di eccellenti meriti. Allo stesso modo Manjughosha osservò lo stesso digiuno e si liberò dalla maledizione degli hobgoblin. Ascendendo ancora una volta alle sfere celesti, anche lei tornò alla sua posizione precedente. Lomasha Rishi continuò, 'Così, Oh re, il grande vantaggio del digiuno su Papamochani Ekadashi è che chiunque lo faccia con fede e devozione avrà tutti i suoi peccati completamente distrutto. Shri Krishna concluse: "Oh re Yudhishthira, chiunque legga o senta parlare di Papamochani Ekadashi ottiene lo stesso merito che otterrebbe se donasse mille mucche in beneficenza, e annulla anche le reazioni peccaminose che potrebbe aver subito uccidendo un brahmana, uccidendo un embrione attraverso l'aborto, bevendo liquori o facendo sesso con la moglie del suo guru. Tale è l'incalcolabile vantaggio di osservare correttamente questo santo giorno di Papamochani Ekadashi, che Mi è così caro e così meritorio. Così finisce la narrazione delle glorie di Chaitra-Krishna Ekadashi, o Papamochani Ekadashi, dal Bhavishya-uttara Purana." APPUNTI: 1. Dopo che Lord Shiva perse la sua cara moglie Sati nell'arena sacrificale di Prajapati Daksha, Shiva distrusse l'intera arena. Quindi riportò in vita suo suocero Daksha dandogli la testa di una capra, e infine si sedette a meditare per sessantamila anni. Lord Brahma, tuttavia, fece in modo che Kamadeva (Cupido) venisse e interrompesse la meditazione di Shiva. Usando le sue frecce di suono, gusto, tatto, vista e olfatto, Cupido attaccò Shiva, che alla fine si risvegliò dalla sua trance. Era così arrabbiato per essere stato disturbato che ridusse immediatamente Cupido in cenere con uno sguardo dal suo terzo occhio. 2. L'associazione femminile è così potente che un uomo dimentica il suo tempo, la sua energia, i suoi averi e persino la sua stessa identità. Come è detto nel Niti-shastra, striya charitram purushasya bhabyam daivo vijanati kuto manushyah: "Anche gli esseri celesti non possono prevedere il comportamento di una donna. Né possono comprendere la fortuna di un uomo o come determinerà il suo destino. Secondo Yajnavalkya Muni, "Una persona (celibe) che desideri la vita spirituale dovrebbe rinunciare a ogni associazione con le donne, incluso pensare a loro, vederle, parlare con loro in un luogo appartato, prendere servizio da loro o avere rapporti sessuali con loro." English PAPAMOCHANI EKADASHI

  • VARUTHINI EKADASHI | ISKCON ALL IN ONE

    VARUTHINI EKADASHI Inglese युधिष्ठिर ने पूछा : हे वासुदेव ! Hai bisogno di sapere cosa fare? कृपया उसकी महिमा बताइये। भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! वैशाख (गुजरात महाराष्टर के अनुसार चैत्र) कृष all'avore यह इस लोक और परलोक में भी सौभाग्य प्रदान करनेवााल 'वरुथिनी' के व्रत से सदा सुख प प्राप्ति और पाप की ह हानि होती है है 'वरुथिनी' के व्रत से ही मान्धाता तथा धुन all'avore जो फल दस हजार वर्षों तक तपस्या करने के बाद मनुष्य को प्राप्त होता है, वही फल इस 'वरुथिनी एकादशी' का व्रत रखनेमातातात से पाप हो हो है।। tiva नृपश्रेष्ठ ! घोड़े के दान से हाथी का दान श्रेष्ठ है । भूमिदान उससे भी बड़ा है । भूमिदान से भी अधिक महत्त्व तिलदान का है । तिलदान से बढ़कर स्वर्णदान और स्वर्णदान से बढ़कर अन्नदान है, क्योंकि देवता, पितर तथा मनुष्यों को अन्न से ही तृप्ति होती है है।। है है है है है है है है है है है है है है tivamente विद्वान पुरुषों ने कन्यादान को भी इस दान के ही समान बताया है कन्यादान के तुल्य ही गाय का दान है, यह साक्षात् भगवान का कथन है इन सब दानों से भी बड़ा विद्यादान है । मनुष्य 'वरुथिनी एकादशी' का व्रत करके विद all'avore जो लोग पाप से मोहित होकर कन all'avore अत: सर्वथा प all'avore जो अपनी शक्ति के अनुसार अपनी कन QI को आभूषणों से विभूषित करके पवित्र भाव से कन्या का दान करता है, उसके पुण्य की संख्या बताने में चित्रगुप भी असम uire 'वरुथिनी एकादशी' करके भी मनुष्य उसीके समान फल प्राप्त करता है है राजन् ! रात को जागरण करके जो भगवान मधुसूदन कµi अत: पापभीरु मनुष्यों को पूर्ण प all'avore यमराज से डरनेवाला मनुष all'avore राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है और मनुष्य सब पापों से मुक्त होकर विष all'avore (सुयोग्य पाठक इसको पढ़ें, सुनें और गौदान का पुण्यलाभ प्राप्त करें।) Shri Yudhishthira Maharaj disse: "Oh Vasudeva, Ti offro i miei più umili omaggi. Per favore ora descrivimi l'Ekadashi della quindicina oscura (Krishna paksha) del mese di Vaisakha (aprile-maggio), compresi i suoi specifici meriti e la sua influenza ." Lord Shri Krishna rispose: "Oh Re, in questo mondo e nell'altro, l'Ekadashi più propizio e magnanimo è Varathini Ekadashi, che si verifica durante la quindicina oscura di il mese di Vaisakha. Chiunque osservi un digiuno completo in questo giorno sacro ha i suoi peccati completamente rimossi, ottiene felicità continua e raggiunge tutta la buona fortuna. Il digiuno a Varathini Ekadashi rende fortunata anche una donna sfortunata. A chiunque lo osservi, questo Ekadashi conferisce godimento materiale in questa vita e liberazione dopo la morte di questo corpo presente, distrugge i peccati di tutti e salva le persone dalle miserie delle ripetute rinascite. Osservando correttamente questo Ekadashi, il re Mandhata fu liberato. Anche molti altri re trassero beneficio dall'osservarlo, re come Maharaja Dhundhumara, nella dinastia Ikshvaku, che si liberò dalla lebbra derivante dalla maledizione che Lord Shiva gli aveva imposto come punizione. Qualunque merito si ottenga eseguendo austerità e penitenze per diecimila anni, viene raggiunto da una persona che osserva Varuthinii Ekadashi. Il merito che si ottiene donando una grande quantità di oro durante un'eclissi solare a Kurukshetra è ottenuto da chi osserva questo Ekadashi con amore e devozione, e certamente raggiunge i suoi obiettivi in questa vita e nella prossima. In breve, questo Ekadashi è puro e molto vivificante e il distruttore di tutti i peccati. Meglio che dare cavalli in beneficenza è dare elefanti, e meglio che dare elefanti è dare terra. Ma ancora meglio che dare terra è dare semi di sesamo, e meglio ancora è dare oro. Ancora meglio che dare oro è dare cereali per tutti gli antenati, semidei (deva) e gli esseri umani si soddisfano mangiando cereali. Quindi non c'è dono di carità migliore di questo nel passato, nel presente o nel futuro. Eppure dotti studiosi hanno dichiarato che dare in sposa una giovane fanciulla a una persona degna equivale a regalare cereali in beneficenza». Inoltre, Lord Shri Krishna, Dio, la Persona Suprema, ha affermato che dare mucche in beneficenza è come dare cereali. Ancora meglio di tutti questi enti di beneficenza è insegnare la conoscenza spirituale agli ignoranti. Eppure tutti i meriti che si possono ottenere compiendo tutti questi atti di carità vengono raggiunti da chi digiuna nel Varuthini Ekadashi. Chi vive della ricchezza delle sue figlie soffre una condizione infernale fino all'inondazione dell'intero universo, Oh Bharata. Pertanto si dovrebbe prestare particolare attenzione a non utilizzare la ricchezza di sua figlia. "O migliore dei re, qualsiasi capofamiglia che prende la ricchezza di sua figlia per avidità, che cerca di vendere sua figlia o che prende soldi dall'uomo per a cui ha dato in sposa sua figlia, tale capofamiglia diventa un umile gatto nella sua prossima vita.Pertanto si dice che chi, come atto sacro di carità, dà in matrimonio una fanciulla decorata di vari ornamenti, e chi dà anche un dote con lei, ottiene meriti che non possono essere descritti nemmeno da Chitragupta, il segretario capo di Yamaraja nei pianeti celesti.Quello stesso merito, tuttavia, può essere facilmente raggiunto da chi digiuna nel Varuthini Ekadashi.Le seguenti cose dovrebbero essere date sul Dashami, (la decima fase della Luna), il giorno prima dell'Ekadashi: Mangiare su piatti di metallo, mangiare qualsiasi tipo di urad-dahl, mangiare lenticchie rosse, mangiare ceci, mangiare kondo (un cereale che è principalmente mangiati da persone povere e che assomigliano a semi di papavero o semi di agarpanthas), mangiare spinaci, mangiare miele, mangiare in casa/abitazione di un'altra persona, mangiare più di una volta e partecipare a rapporti sessuali di qualsiasi tipo. Sull'Ekadashi stesso si dovrebbe rinunciare a quanto segue: gioco d'azzardo, sport, dormire durante il giorno, noci di betulla e la sua foglia, lavarsi i denti, diffondere voci, trovare difetti, parlare con coloro che sono spiritualmente caduti, arrabbiarsi e mentire. Nel Dwadashi il giorno dopo Ekadashi (la dodicesima fase della Luna), si dovrebbe rinunciare a mangiare su piatti di metallo, mangiare urad- dahl, lenticchie rosse o miele, mentire, esercizio o lavoro faticoso, mangiare più di una volta, qualsiasi attività sessuale, radersi il corpo, il viso o la testa, spalmarsi di olio sul proprio corpo e mangiare a casa di un altro ". Lord Shri Krishna continuò: "Chiunque osservi il Varuthini Ekadashi in questo modo diventa libero da tutte le reazioni peccaminose e ritorna all'eterna dimora spirituale. Chi adora il Signore Janardana (Krishna) in questa Ekadashi rimanendo sveglio per tutta la notte, diventa anche libero da tutti i suoi peccati precedenti e raggiunge la dimora spirituale.Pertanto, o re, colui che è spaventato dai suoi peccati accumulati e dalle loro reazioni conseguenti, e quindi della morte stessa, deve osservare Varuthini Ekadashi digiunando molto rigorosamente. Infine, oh nobile Yudhishthira, colui che ascolta o legge questa glorificazione del sacro Varuthini Ekadashi ottiene il merito guadagnato donando mille mucche in beneficenza, e alla fine torna a casa, alla dimora suprema del Signore Vishnu nei Vaikunthas." VARUTHINI EKADASHI English

  • YOGINI EKADASHI | ISKCON ALL IN ONE

    YOGINI EKADASHI Inglese युधिष्ठिर ने पूछा : वासुदेव ! आषाढ़ के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये । भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़ (गुजरात महारष carica के अनुसार ज्येष्ठ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम 'योगिनी' है है यह बड़े बडे पातकों का नाश करनेवाली है। संसारसागर में डूबे हुए प्राणियों के यह सन सनातन नौका के समान है अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं उनका 'हेममाली' नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था। हेममाली की पत्नी का नाम 'विशालाक्षी' था । वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था। एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ठह ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका सक। इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे ते थे उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की । जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कह कहा: 'यक्षों! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है ?' यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में हऀ रमण का यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया। वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया । उसे देखकर कुबेर बोले : 'ओ पापी! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान की अवहेलना की है, अत: कोढ़ युक युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स all'avore कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया । कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प all'avore तदनन्तर वह पर्वतों में श all'avore वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ । पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनिवर मारulareडेय ने उसे भय से काँपते देख कहा: 'तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया?' यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ । मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था। एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया । मुनिश्रेष्ठ संतों का चित्त स all'avore मारulareकण ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ हूँ तुम आषाढ़ मास के कृष all'avore इस व्रत के पुण्य से तुम all'avore भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! मारulareकण के उपदेश से उसने 'योगिनी एकादशी' का व्रत किया, जिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया। उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया । नृपश्रेष्ठ ! यह 'योगिनी' का व्रत ऐसा पुण्यशाली है अठ अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलत है, वही फल योगिनी एक एकादशी 'का वा करत करनेव मनुष मनुष है है है वही फल योगिनी योगिनी एकादशी' का व Quali 'योगिनी' महान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेव देनेवाली है है इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है Yudhishthira Maharaj disse: "Oh Signore Supremo, ho ascoltato le glorie del Nirjala Ekadashi, che si verifica durante la quindicina di luce del mese di Jyeshtha (maggio - giugno). Ora desidero sentire da Te del Suddha Ekadashi che si verifica durante la quindicina oscura del mese di Ashadha (giugno - luglio). Gentilmente descrivimi tutto in dettaglio, Oh assassino del demone Madhu (Madhusudana)." Il Signore Supremo, Shri Krishna, allora rispose: "Oh re, ti parlerò davvero del migliore di tutti i giorni di digiuno, l'Ekadashi che viene durante il parte oscura del mese di Ashadha. Famoso come Yogini Ekadashi, rimuove ogni tipo di reazione peccaminosa e premia la liberazione suprema. Oh migliore dei re, questo Ekadashi libera le persone che stanno annegando nel vasto oceano dell'esistenza materiale e le trasporta sulla riva del mondo spirituale. In tutti e tre i mondi, è il capo di tutti i sacri giorni di digiuno. Ora ti rivelerò questa verità narrando una storia raccontata nei Purana. Il re di Alakapuri - Kuvera, il tesoriere dei deva (semidei) - era un fedele devoto del signore Shiva. Assunse un servitore di nome Hemamali come suo giardiniere personale. Hemamali, uno Yaksha come Kuvera, era molto lussuriosamente attratto dalla sua splendida moglie, Swarupavatii, che aveva grandi occhi incantevoli. Il dovere quotidiano di Hemamali era visitare il lago Manasarovara e riportare fiori per il suo maestro, Kuvera, con i quali li avrebbe usati nelle offerte di puja al signore Shiva. Un giorno, dopo aver raccolto i fiori, Hemamali andò da sua moglie invece di tornare direttamente dal suo padrone e adempiere al suo dovere portando i fiori per la puja. Assorto in relazioni amorose di natura fisica con sua moglie, si dimenticò di tornare alla dimora di Kuvera. Oh re, mentre Hemamali si stava divertendo con sua moglie, Kuvera aveva iniziato l'adorazione del signore Shiva come di consueto nel suo palazzo e presto scoprì che non c'erano fiori pronti per essere offerti nella puja di mezzogiorno. La mancanza di un oggetto così importante (upachara) fece arrabbiare ancora di più il grande Koshad-yaksha (tesoriere dei deva), che chiese a un messaggero Yaksha: "Perché Hemamali dal cuore sporco non è venuto con l'offerta quotidiana di fiori? Vai a scoprire il motivo esatto e riferiscimelo di persona con le tue scoperte." Lo Yaksha tornò e disse a Kuvera: "Oh caro signore, Hemamali si è perso nel godere liberamente del coito con sua moglie". Kuvera si arrabbiò moltissimo quando lo sentì e subito convocò l'umile Hemamali davanti a sé. Sapendo di essere stato negligente e di aver indugiato nel suo dovere ed esposto mentre meditava sul corpo di sua moglie, Hemamali si avvicinò al suo maestro con grande paura. Il giardiniere prima rese i suoi omaggi e poi si fermò davanti al suo signore, i cui occhi erano diventati rossi di rabbia e le cui labbra tremavano di rabbia. Così infuriato, Kuvera gridò a Hemamali: "Oh peccatore mascalzone! Oh distruttore di principi religiosi! Sei un'offesa ambulante per i deva! Ti maledico quindi a soffrire di lebbra bianca e a separarti dalla tua amata moglie! Solo grande la sofferenza è meritatamente tua! Oh stupido di bassa nascita, lascia immediatamente questo posto e vai sui pianeti inferiori a soffrire!" E così Hemamali cadde subito in disgrazia ad Alakapuri e si ammalò della terribile piaga della lebbra bianca. Si svegliò in una foresta fitta e spaventosa, dove non c'era niente da mangiare o da bere. Così trascorreva i suoi giorni nella miseria, incapace di dormire la notte a causa del dolore. Ha sofferto sia in inverno che in estate, ma poiché ha continuato ad adorare lo stesso Signore Shiva con fede, la sua coscienza è rimasta puramente fissa e stabile. Sebbene implicato da un grande peccato e dalle relative reazioni, ricordava la sua vita passata a causa della sua pietà. Dopo aver vagato per un po' di tempo qua e là, per montagne e pianure, Hemamali giunse infine alla vasta distesa delle catene montuose dell'Himalaya. Lì ebbe la meravigliosa fortuna di entrare in contatto con la grande anima santa Markandeya Rishi, il migliore degli asceti, la cui durata della vita si dice si estenda a sette dei giorni di Brahma. Markandeya Rishi era seduto pacificamente nel suo Ashrama, splendente come un secondo Brahma. Hemamali, sentendosi molto peccatore, si fermò a distanza dal magnifico saggio e offrì i suoi umili omaggi e preghiere scelte. Sempre interessato al benessere degli altri, Markandeya Rishi vide il lebbroso e lo chiamò vicino: "Oh tu, che tipo di azioni peccaminose hai fatto per guadagnarti questa terribile afflizione?" Sentendo questo, Hemamali rispose dolorosamente e vergognoso: "Caro signore, sono un servitore Yaksha del signore Kuvera e il mio nome è Hemamali. Era il mio servizio quotidiano per raccogliere i fiori dal lago Manasarovara per l'adorazione del mio maestro del signore Shiva, ma un giorno fui negligente e tardai a tornare con l'offerta perché ero stato sopraffatto dalla lussuriosa passione di godere dei piaceri del corpo con mia moglie.Quando il mio maestro scoprì perché sono arrivato in ritardo, mi ha maledetto con grande rabbia per essere come sono davanti a te. Così ora sono privato della mia casa, di mia moglie e del mio servizio. Ma fortunatamente sono venuto da te, e ora spero di ricevere da una benedizione di buon auspicio, perché so che i devoti come te sono misericordiosi come il Signore Supremo (Bhakta Vatsala) e portano sempre l'interesse degli altri al primo posto nei loro cuori. Questa è la loro - la tua natura. Oh migliore dei saggi, per favore aiutami Me!" Markandeya Rishi dal cuore tenero rispose: "Poiché mi hai detto la verità, ti parlerò di un giorno di digiuno che ti sarà di grande beneficio. Se digiuni il Ekadashi che arriva durante la quindicina oscura del mese di Ashadha, sarai sicuramente liberato da questa terribile maledizione." Hemamali cadde a terra in completa gratitudine e gli offrì ripetutamente i suoi umili omaggi. Ma Markandeya Rishi rimase lì e sollevò in piedi il povero Hemamali, riempiendolo di una felicità inesprimibile. Così, come gli aveva insegnato il saggio, Hemamali osservò diligentemente il digiuno di Ekadashi, e grazie alla sua influenza divenne di nuovo un bellissimo Yaksha. Poi è tornato a casa, dove ha vissuto felicemente con sua moglie". Lord Shri Krishna concluse: "Quindi, puoi facilmente vedere, Oh Yudhishthira, che il digiuno su Yogini Ekadashi è molto potente e di buon auspicio. Qualunque merito si ottenga nutrendo ottanta -Ottomila brahmini si ottengono anche semplicemente osservando un rigido digiuno su Yogini Ekadashi. Per uno che digiuna in questo sacro Ekadashi, lei (Ekadashi Devi), distrugge cumuli di passate reazioni peccaminose e lo rende molto pio. Oh Re, così ho ti ha spiegato la purezza di Yogini Ekadashi." Così termina la narrazione delle glorie di Ashadha-krishna Ekadashii, o Yogini Ekadashi, dal Brahma-vaivarta Purana. YOGINI EKADASHI English

  • JHULAN YATRA | ISKCON ALL IN ONE

    JHULAN YATRA Uno degli eventi più popolari nella città santa di Vrindavan, in India, dove Lord Krishna apparve 5000 anni fa, è la celebrazione di Jhulan Yatra, il festival swing Radha-Krishna. A Vrindavan tra gli abitanti del villaggio e gli abitanti locali questa festa dura 13 giorni. ​ A Sri Vrindavan per cinque giorni, in molti dei 5000 templi presenti, le piccole Divinità funzionali Utsav-vighraha (Vijay-utsav bera) vengono prese dall'altare e poste su un'altalena riccamente decorata nella stanza del tempio. Dopo aver ricevuto il tradizionale culto dell'arati, le Divinità vengono spinte sulla Loro altalena. Ogni persona offre petali di fiori e preghiere personali, quindi spinge l'altalena più volte mentre gli altri membri cantano Hare Krishna, Jaya Radhe Jaya Krishna jaya Vrindavan, o Jaya Radhe, Jaya Jaya Madhava dayite in kirtan. L'atmosfera di questo festival è particolarmente dolce poiché tutti hanno la possibilità di servire intimamente Radha e Krishna. ​ La stessa festa si osserva anche in altre parti dell'India in questo sacro mese di Shravana. Nei nostri templi ISKCON osserviamo per cinque giorni secondo le istruzioni di Srila Prabhupada. Questa è una meravigliosa funzione cerimoniale dei passatempi del Signore Krishna che riflette praticamente come dobbiamo rendere servizio al Signore per il Suo piacere. ​ Queste feste non sono in alcun modo semplici rituali, poiché hanno tutte funzionalità di servizio pratico per invocare l'amorevole servitù dei devoti per il Signore. Lord Sri Krishna è il Supremo beneficiario e non deve lavorare sodo come noi in questo mondo. Tutto ciò che fa è piacevole e organizza molte situazioni in cui può incorporare noi, le sue parti separate e i pacchi, nel suo servizio d'amore che è la nostra condizione naturale nel regno spirituale. ​ Quando Sri Krishna aveva i suoi passatempi nella campagna di Vrindavana insieme ai Suoi amici mandriani, si prendevano amorevolmente cura delle mucche e vagavano nei pascoli giocando, scherzando e banchettando. Durante le varie stagioni, tutti godevano continuamente di far parte dei passatempi di Sri Krishna e di renderGli amorevole servizio nel miglior modo possibile. È una festa molto piacevole e soddisfacente, con le altalene spesso riccamente decorate con piante rampicanti della foresta, gelsomino (Malati) che è appena sbocciato nella stagione e stelle filanti di ghirlande. A volte usano un sottile spruzzo di acqua di rose e lo dirigono verso la coppia Divina di Radha e Krishna sulla Loro altalena. ​ L'ultimo giorno del Jhulan, durante il Purnima (luna piena), arriva la festa del giorno dell'apparizione di Lord Balaram. Partecipiamo a questo festival e offriamo il nostro amorevole servizio devozionale a Sri Krishna e Srimati Radharani.

  • GITA JAYANTI | ISKCON ALL IN ONE

    GITA JAYANTI In questo giorno, 5000 anni fa, sul campo di battaglia di Kuruksetra, il Signore Supremo consegnò ai Suoi piedi di loto la più confidenziale e suprema conoscenza del servizio devozionale nella forma della Bhagavad-gita al Suo più caro devoto Arjuna e all'umanità in generale. , al fine di aiutare tutti i devoti a comprendere lo scopo della vita e il modo per arrendersi a Lui. Questo giorno è anche chiamato Mokshada Ekadashi. Generalmente viene nel mese di dicembre.

  • CHANDAN YATRA | ISKCON ALL IN ONE

    CHANDAN YATRA Da Akshaya-tritiya inizia Chandan-yatra Chandan-yatra è una festa di ventuno giorni osservata nei templi, specialmente in India, durante la stagione estiva. Durante il Chandana-yatra, i devoti ungono le Divinità del Signore con pasta di legno di sandalo rinfrescante. ​ Akshaya tritiya, secondo the Vedico calendar, è un giorno considerato favorevole al successo in qualsiasi impresa significativa. Tradizionalmente, coloro che sono consapevoli dei benefici di Akshaya tritiya programmano i principali eventi della vita - matrimoni, iniziazioni, iniziative imprenditoriali, stabilire un nuovo luogo di residenza - in questo giorno. ​ Candana yatra inizia il terzo giorno lunare della luna crescente del mese Vaisakha e continua per venti giorni. Lord Jagannatha diede istruzioni dirette al re Indradyumna di celebrare questa festa in questo momento. Ungere il corpo del Signore con unguenti è un atto di devozione, e il migliore degli unguenti è la pasta di legno di sandalo. Poiché il mese di Vaisakha è molto caldo in India, l'effetto rinfrescante del legno di sandalo è molto gradito al corpo del Signore. ​ La pasta di sandalo viene applicata su tutto il corpo di Jagannatha lasciando visibili solo i suoi due occhi. Gli utsava murtis (Divinità funzionali - Vijay utsav) vengono portati in processione e posti su una barca nello stagno del tempio. Per commemorare questa festa, Sri Caitanya praticava anche sport acquatici con i suoi devoti. ​ Nel giorno di Aksaya Tritiya a Vrindavan, tutte le grandi divinità del tempio di Goswami sono ricoperte di pasta chandan e non un pezzetto di stoffa usato per coprire le divinità nel pomeriggio. Il festival viene celebrato anche nel nostro tempio ISKCON Vrindavan e di solito continua per 21 giorni con le Utsava Vigraha ricoperte di chandan. Le Divinità sono completamente ricoperte di chandan (pasta di legno di sandalo), che fornisce al Signore sollievo dal caldo torrido dell'estate nel mese di Vaisakha/Jyestha (maggio/giugno).

  • GAURA PURNIMA | ISKCON ALL IN ONE

    GAURA PURNIMA Gaura Purnima - Giorno dell'apparizione di Chaitanya Mahaprabhu Questo festival celebra l'apparizione di Caitanya Mahaprabhu . Si osserva ogni anno (da febbraio a marzo) by Krishna devoti di tutto il mondo, specialmente nell'area di Mayapur, in India, il luogo in cui Mahaprabhu apparve nell'anno 1486. ​ Chaitanya Mahaprabhu è la Persona Suprema, Krishna Stesso, che appare come Suo stesso devoto, per insegnarci che possiamo ottenere la piena illuminazione semplicemente cantando i santi nomi del Signore: ​ Hare Krishna, Hare Krishna, Krishna Krishna, Hare Hare/ Hare Rama, Hare Rama, Rama Rama, Hare Hare ​ Coloro che furono testimoni dei passatempi di Mahaprabhu Lo videro danzare e cantare con un amore estatico per Dio, un amore mai visto prima. Ha incoraggiato tutti a seguire questo stesso processo. Ha insegnato che chiunque, indipendentemente dal background o dalle qualifiche spirituali, può sviluppare il proprio innato amore per Dio e provare un grande piacere spirituale cantando il mantra Hare Krishna. ​ ​ Gaura Purnima significa "luna piena d'oro", a significare che: 1) Lord Chaitanya è "nato" durante la luna piena, e 2) Il Signore benedice tutti con i rasserenanti raggi lunari dei Suoi sublimi insegnamenti. ​ I suoi seguaci generalmente osservano questa festa digiunando e cantando i santi nomi tutto il giorno. Al sorgere della luna, un banchetto vegetariano viene offerto al Signore e poi goduto da tutti. ​ Motivo dell'apparizione ​ Il Signore Krishna pensò a Goloka: “Inaugurerò personalmente la religione dell'epoca; nama-sankirtana, il canto congregazionale del santo nome del Signore nella forma del Signore Gauranga. Accettando il ruolo di un devoto, farò danzare in estasi il mondo intero e realizzerò così i quattro piaceri dell'amorevole servizio devozionale. In questo modo insegnerò il servizio devozionale agli altri praticandolo personalmente, poiché qualunque cosa faccia una grande personalità, la gente comune la seguirà. Naturalmente, le Mie porzioni plenarie possono stabilire i principi religiosi per ogni epoca, ma solo Io posso concedere il tipo di amorevole servizio devozionale che viene svolto dai residenti di Vraja.” ​ Oltre a questa ragione secondaria per cui Lord Krishna appare ancora una volta, assumendo la forma di un devoto, c'è un altro scopo confidenziale di natura molto personale. Anche se Sri Krishna aveva assaporato l'essenza dei sentimenti d'amore eseguendo i Suoi passatempi coniugali in compagnia delle gopi, non era in grado di soddisfare tre desideri. ​ Pertanto, dopo la Sua scomparsa, il Signore pensò: “Sebbene io sia la Verità Assoluta e la riserva di tutti i rasa, non riesco a capire la forza dell'amore di Radharani, con cui Lei mi travolge sempre. In verità, l'amore di Radharani è il Mio maestro, e io sono il Suo allievo di danza, perché il Suo amore Mi fa ballare in vari modi nuovi. Qualunque sia il piacere che provo assaporando il Mio amore per Srimati Radharani, Lei ne assapora dieci milioni di volte di più, grazie al Suo amore. Anche se non c'è niente di più grande dell'amore di Radha, poiché è tutto pervasivo, tuttavia si espande costantemente ed è completamente privo di orgoglio. Non c'è niente di più puro dell'amore di Radha, eppure il suo comportamento è sempre perverso e disonesto. ​ “Sri Radhika è la più alta dimora dell'amore, e io sono il suo unico oggetto. Assaporo la beatitudine a cui l'oggetto ha diritto, ma il piacere di Radha è dieci milioni di volte più grande del mio. Pertanto, la mia mente diventa pazza per assaporare il piacere che si prova dalla dimora dell'amore, anche se non posso farlo. Solo se posso in qualche modo diventare la dimora di quell'amore, potrò sperimentare la sua gioia. ​ Questo era un desiderio che ardeva sempre più nel cuore del Signore Krishna. Poi, vedendo la Sua bellezza, Sri Krishna iniziò a considerare quanto segue: “La mia dolcezza è infinitamente meravigliosa. Solo Radhika può assaporare il nettare completo della Mia dolcezza, con la forza del Suo amore, che agisce proprio come uno specchio la cui chiarezza aumenta in ogni momento. Sebbene la Mia dolcezza, essendo senza limiti, apparentemente non abbia spazio per espandersi, risplende di una bellezza sempre più nuova, e quindi compete costantemente con lo specchio dell'amore di Radharani, poiché entrambi continuano a crescere senza ammettere la sconfitta. “I devoti gustano la Mia dolcezza secondo il loro rispettivo amore, e se vedo quella dolcezza riflessa in uno specchio, anch'io sono tentato di gustarla, anche se non posso. Riflettendo, scopro che l'unico modo in cui posso assaporare la Mia dolcezza è assumere la posizione di Srimati Radharani.” ​ Questo era il secondo desiderio del Signore Krishna, e il Suo terzo desiderio fu espresso pensando come segue: “Tutti dicono che Io sono la riserva di tutta la beatitudine trascendentale, e in effetti, tutto il mondo trae piacere solo da Me. Chi dunque potrebbe darmi piacere? Penso che solo qualcuno che abbia cento volte più qualità di Me potrebbe dare piacere alla Mia mente, ma una persona del genere è impossibile da trovare”. ​ “Eppure, nonostante il fatto che la Mia bellezza sia insuperabile e dia piacere a tutti coloro che la percepiscono, la vista di Srimati Radharani dà piacere ai Miei occhi. Sebbene la vibrazione del Mio flauto attragga tutti nei tre mondi, le Mie orecchie rimangono incantate dalle dolci parole pronunciate da Radharani. Anche se il Mio corpo presta la sua fragranza all'intera creazione, il profumo delle membra di Radharani affascina la Mia mente e il Mio cuore. Sebbene ci siano vari gusti dovuti solo a Me, rimango affascinato dal gusto nettareo delle labbra di Radharani. Sebbene il Mio tocco sia più fresco di dieci milioni di lune, vengo rinfrescato dal tocco di Srimati Radharani. Quindi, nonostante io sia la fonte della felicità per il mondo intero, la bellezza e gli attributi di Sri Radhika sono la mia vera vita e anima. ​ “I Miei occhi diventano pienamente soddisfatti guardando Srimati Radharani, eppure, quando Mi guarda, prova una soddisfazione ancora maggiore. Il mormorio sussurrante degli alberi di bambù che sfregano l'uno contro l'altro ruba la mente di Radharani, perché pensa che sia il suono del Mio flauto. Abbraccia un albero tamala, scambiandolo per Me, e quindi pensa: 'Ho ottenuto l'abbraccio di Krishna, e così ora la Mia vita si è realizzata.' Quando la fragranza del Mio corpo Le viene portata dal vento, Radharani diventa accecata dall'amore e cerca di volare in quella brezza. Quando assaggia la noce di betel che è stata masticata da Me, si immerge in un oceano di gioia e dimentica tutto il resto”. ​ “Così, anche con centinaia di bocche, non potrei esprimere il piacere che Radharani trae dalla Mia associazione. Infatti, vedendo la lucentezza della sua carnagione dopo i nostri passatempi insieme, considero trascurabile la mia propria felicità. Esperti sessuologi affermano che la felicità dell'amante e dell'amato sono uguali, ma non conoscono la natura dell'amore trascendentale a Vrindavana. A causa dell'indescrivibile piacere che Radharani prova, posso capire che c'è una dolcezza sconosciuta dentro di me che controlla la sua intera esistenza. ​ “Sono sempre molto ansioso di assaporare la gioia che Srimati Radharani trae da Me, eppure, nonostante gli sforzi, non sono stato in grado di farlo. Pertanto, per soddisfare i Miei tre desideri, assumerò la carnagione corporea e il sentimento d'amore estatico di Sri Radhika, e poi discenderò come incarnazione. ​ Desiderando comprendere la gloria dell'amore di Radharani, le meravigliose qualità in Lui che solo Lei assapora attraverso il Suo amore, e la felicità che prova nel realizzare la dolcezza del Suo amore, il Signore Supremo, Gauranga-Krishna, decise di apparire in una forma che era riccamente dotato delle Sue emozioni. Prima di tutto, il Signore fece incarnare sulla terra i Suoi rispettabili superiori, come Sua madre e Suo padre, Sri Sachidevi e Jagannath Mishra. Inoltre, c'erano Madhavendra Puri, KeshavaBharati, Ishvara Puri, Advaita Acharya, SrivasPandita, Thakur Haridas, Acharyaratna e Vidyanidhi. ​ Prima dell'apparizione del Signore Sri Gauranga Mahaprabhu, tutti i devoti nell'area di Navadvip erano soliti riunirsi nella casa di Advaita Acharya. In questi incontri, Advaita Acharya predicava sulla base della Bhagavad-Gita e dello Srimad-Bhagavatam, denigrando i sentieri della speculazione filosofica e dell'attività interessata, e stabilendo fermamente la super eccellenza del servizio devozionale. Nella casa di Advaita Acharya, i devoti provavano piacere nel parlare sempre di Krishna, nell'adorare Krishna e nel cantare il maha-mantra Hare Krishna. ​ Tuttavia, Advaita Acharya si sentì molto addolorato nel vedere come praticamente tutte le persone del mondo fossero prive della coscienza di Krishna e completamente immerse nel godimento dei sensi materiali. Sapendo che nessuno può ottenere sollievo dal ciclo di nascite e morti ripetute senza interessarsi al servizio devozionale del Signore, Advaita Acharya rifletté compassionevolmente sui mezzi con cui le persone potevano essere liberate dalle grinfie di maya. ​ Advaita Acharya pensò: “Solo se il Signore Krishna appare personalmente e predica il sentiero del servizio devozionale con il Suo stesso esempio, la liberazione diventerà possibile per tutte le persone. Pertanto, adorerò il Signore in uno stato mentale purificato e Lo supplicherò costantemente con tutta umiltà. In effetti, il mio nome Advaita sarà appropriato solo se sarò in grado di indurre il Signore Krishna a inaugurare il movimento del sankirtan del canto del santo nome, che è l'unica religione per questa epoca. ​ Mentre Advaita Acharya pensava a come soddisfare Krishna con la Sua adorazione, gli venne in mente il seguente verso: "Sri Krishna, che è molto affettuoso verso i Suoi devoti, si vende a chi gli offre solo una foglia di tulasi e una palma piena d'acqua". (Gautamiya tantra) ​ Advaita Acharya ha considerato il significato di questo verso nel modo seguente: “Il Signore Krishna non riesce a trovare alcun modo per ripagare il debito che ha nei confronti di chi gli offre una foglia di tulasi e dell'acqua. Pertanto, il Signore conclude: 'Poiché non c'è nulla in Mio possesso che sia pari a una foglia di tulasi e acqua, liquiderò il debito offrendo Me Stesso al devoto.' Successivamente, mentre meditava sui piedi di loto di Sri Krishna, Advaita Acharya offriva costantemente boccioli di tulasi nell'acqua del Gange. Mentre era così impegnato nell'adorazione, Advaita Acharya chiese a Krishna di apparire con le Sue forti grida, e questo ripetuto invito attirò l'attenzione del Signore, facendoLo scendere. ​ Sri Upendra Mishra, un brahmana che in precedenza era il gopala chiamato Parjanya, il nonno del Signore Krishna, era un grande devoto e studioso. Uno dei sette figli di Upendra, Jagannath Mishra, si trasferì da Srihatta alle rive del Gange a Nadia, e poi sposò Srimati Sachidevi, la figlia di Nilambar Chakravarti, che in precedenza era Gargamuni. ​ Prima della comparsa di Sri Gauranga Mahaprabhu, Jagannath Mishra (che prima era Nanda Maharaja) generò otto figlie nel grembo di Sachidevi (che prima era Yashoda), ma subito dopo la nascita morirono tutte. Essendo molto addolorato per la perdita dei suoi figli, uno dopo l'altro, Jagannath Mishra adorò il Signore Vishnu, mentre desiderava un figlio. Successivamente, Sachimata diede alla luce un bambino di nome Vishvarup, che era un'incarnazione di Lord Baladev. Molto contenti, la madre e il padre iniziarono a servire i piedi di loto del Signore Govinda ancora più devotamente, perché si resero conto che la loro felicità era per la Sua misericordia. ​ Quindi, nel mese di Maagh (18 febbraio 1486) dell'anno 1406, era Shaka, Lord Krishna entrò nei corpi sia di Jagannath Mishra che di Sachidevi. Successivamente, Jagannath informò sua moglie: “Vedo molte cose meravigliose! Il tuo corpo sembra risplendere e sembra che la dea della fortuna risieda personalmente nella nostra casa. Ovunque io vada, tutti mi offrono rispetto e, anche senza chiedere, mi danno denaro, vestiti e granaglie”. Sachimata rispose: "Vedo anche esseri meravigliosamente brillanti, che appaiono nel cielo, come se offrissero preghiere". ​ Jagannath Mishra allora disse: “In un sogno ho visto la fulgida dimora del Signore Supremo entrare nel mio cuore. Poi, dal mio cuore è entrato nel tuo cuore, e così posso capire che presto nascerà una grande personalità”. ​ Dopo questa conversazione, marito e moglie si sentirono molto giubilanti e con grande cura e attenzione resero servizio alla famiglia Shalagrama-sila. ​ Tuttavia, quando la gravidanza di Sachimata si avvicinò al tredicesimo mese, e ancora non c'erano segni di parto, Jagannath Mishra divenne molto apprensiva. A quel tempo, Nilambara Chakravarti fece un calcolo astrologico e predisse che il bambino sarebbe nato proprio quel mese, approfittando di un momento propizio. ​ Così accadde che la sera del Phalgunipurnima, nell'era Shaka dell'anno 1407, corrispondente all'anno moderno 1486, Sri Chaitanya Mahaprabhu fece la Sua apparizione a Navadvip. In quel momento, Rahu rifletté: "Quando la luna immacolata di Chaitanya Mahaprabhu sta per diventare visibile, che bisogno c'è di una luna piena di segni neri?" Pensando in questo modo, Rahu coprì la luna piena, e così tutti gli indù andarono sulle rive del Gange per fare il bagno e cantare i nomi "Krishna" e "Hari". Mentre gli indù facevano così vibrare i santi nomi del Signore, i maomettani li imitavano scherzosamente. In questo modo, al momento dell'apparizione di Sri Caitanya, tutti erano impegnati a cantare il maha-mantra Hare Krishna. ​ In tutte le direzioni e nella mente di tutti c'era pace e gioia. A Shantipur, Advaita Acharya e Haridas Thakur hanno iniziato a cantare e ballare in uno stato d'animo molto piacevole, anche se nessuno riusciva a capire perché lo facessero. Mentre ridevano ancora e ancora, andarono anche loro al Gange, e in quel momento Advaita Acharya approfittò dell'eclissi lunare per distribuire ogni tipo di carità ai brahmana. Vedendo come il mondo intero era diventato esultante, Haridas Thakur si rivolse ad Advaita Acharya con grande stupore: "Poiché la tua danza e la tua distribuzione di carità mi sembrano molto piacevoli, posso capire che hai uno scopo molto speciale". ​ A Navadvip, Srivas Thakur e Acharyaratna, che era anche chiamato Chandrashekhar, andarono immediatamente a fare il bagno nel Gange, e mentre cantavano il santo nome del Signore con grande giubilo, facevano anche la carità con forza mentale. Infatti, dovunque si trovassero, tutti i devoti danzavano, cantavano e facevano carità sulla supplica dell'eclissi lunare, le loro menti sopraffatte dalla gioia. Anche sui pianeti celesti si cantavano e si danzava, poiché gli esseri celesti erano molto ansiosi di assistere all'apparizione trascendentale del Signore.

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