Bhagavad Gita chapter 1 text 11-12
Day 5 ( January 5 )
TEXT 11
ayaneṣu ca sarveṣu
yathā-bhāgam avasthitāḥ
bhīṣmam evābhirakṣantu
bhavantaḥ sarva eva hi
SYNONYMS
ayaneṣu—in the strategic points; ca—also; sarveṣu—everywhere; yathābhāgam—as they are differently arranged; avasthitāḥ—situated; bhīṣmam—unto Grandfather Bhīṣma; eva—certainly; abhirakṣantu—support may be given; bhavantaḥ—all of you; sarve—respectively; eva—certainly; hi—and exactly.
TRANSLATION
Now all of you must give full support to Grandfather Bhīṣma, standing at your respective strategic points in the phalanx of the army.
PURPORT
Duryodhana, after praising the prowess of Bhīṣma, further considered that others might think that they had been considered less important, so in his usual diplomatic way, he tried to adjust the situation in the above words. He emphasized that Bhīṣmadeva was undoubtedly the greatest hero, but he was an old man, so everyone must especially think of his protection from all sides. He might become engaged in the fight, and the enemy might take advantage of his full engagement on one side. Therefore, it was important that other heroes would not leave their strategic positions and allow the enemy to break the phalanx. Duryodhana clearly felt that the victory of the Kurus depended on the presence of Bhīṣmadeva. He was confident of the full support of Bhīṣmadeva and Droṇācārya in the battle because he well knew that they did not even speak a word when Arjuna's wife Draupadī, in her helpless condition, had appealed to them for justice while she was being forced to strip naked in the presence of all the great generals in the assembly. Although he knew that the two generals had some sort of affection for the Pāṇḍavas, he hoped that all such affection would now be completely given up by them, as was customary during the gambling performances.
TEXT 12
tasya sañjanayan harṣaṁ
kuru-vṛddhaḥ pitāmahaḥ
siṁha-nādaṁ vinadyoccaiḥ
śaṅkhaṁ dadhmau pratāpavān
SYNONYMS
tasya—his; sañjanayan—increasing; harṣam—cheerfulness; kuru-vṛddhaḥ—the grandsire of the Kuru dynasty (Bhīṣma); pitāmahaḥ—the grandfather; siṁha-nādam—roaring sound, like a lion; vinadya—vibrating; uccaiḥ—very loudly; śaṅkham—conchshell; dadhmau—blew; pratāpavān—the valiant.
TRANSLATION
Then Bhīṣma, the great valiant grandsire of the Kuru dynasty, the grandfather of the fighters, blew his conchshell very loudly like the sound of a lion, giving Duryodhana joy.
PURPORT
The grandsire of the Kuru dynasty could understand the inner meaning of the heart of his grandson Duryodhana, and out of his natural compassion for him he tried to cheer him by blowing his conchshell very loudly, befitting his position as a lion. Indirectly, by the symbolism of the conchshell, he informed his depressed grandson Duryodhana that he had no chance of victory in the battle, because the Supreme Lord Kṛṣṇa was on the other side. But still, it was his duty to conduct the fight, and no pains would be spared in that connection.
अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण
श्लोक 1 . 11
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः |भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि || ११ ||
अयनेषु - मोर्चों में; च - भी; सर्वेषु - सर्वत्र; यथा-भागम् - अपने-अपने स्थानों पर; अवस्थिताः - स्थित; भीष्मम् - भीष्म पितामह की; एव - निश्चय ही; अभिरक्षन्तु - सहायता करनी चाहिए; भवन्तः - आप; सर्वे - सब के सब; एव हि - निश्चय ही ।
भावार्थ
अतएव सैन्यव्यूह में अपने-अपने मोर्चों पर खड़े रहकर आप सभी भीष्म पितामह को पूरी-पूरी सहायता दें ।
तात्पर्य
भीष्म पितामह के शौर्य की प्रशंसा करने के बाद दुर्योधन ने सोचा की कहीं अन्य योद्धा यह न समझ लें कि उन्हें कम महत्त्व दिया जा रहा है अतः दुर्योधन ने अपने सहज कुटनीतिक ढंग से स्थिति सँभालने के उद्देश्य से उपर्युक्त शब्द कहें । उसने बलपूर्वक कहा कि भीष्मदेव निस्सन्देह महानतम योद्धा हैं किन्तु अब वे वृद्ध हो चुके हैं अतः प्रत्येक सैनिक को चाहिए की चारों ओर से उनकी सुरक्षा का विशेष ध्यान रखे | हो सकता है कि किसी एक दिशा में युद्ध करने में लग जायँ ओर शत्रु इस व्यस्तता का लाभ उठा ले | अतः यह आवश्यक है कि अन्य योद्धा मोर्चों पर अपनी-अपनी स्त्गीती पर अडिग रहें और शत्रु को व्यूह न तोड़ने दें |
दुर्योधन को पूर्ण विश्र्वास था कि कुरुओं की विजय भीष्मदेव कि उपस्थिति पर निर्भर है | उसे युद्ध में भीष्मदेव तथा द्रोणाचार्य के पूर्ण सहयोग कि आशा थी क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि इन दोनों ने उस समय एक शब्द भी नहीं कहा था जब अर्जुन कि पत्नी द्रोपदी को असहायावस्था में भरी सभा में नग्न किया जा रहा था और जब उसने उनसे न्याय की भीख माँगी थी | वह जानते हुए भी इन दोनों सेनापतियों के मन में पाण्डवों के लिए स्नेह था, दुर्योधन को आशा थी कि वे इस स्नेह को उसी तरह त्याग देंगे जिस तरह उन्होंने द्यूत-क्रीड़ा के अवसर पर किया था |
अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण
श्लोक 1 . 12
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः |
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् || १२ ||
तस्य – उसका; सञ्जयनयन् – बढाते हुए; हर्शम् – हर्ष; कुरु-वृद्धः – कुरुवंश के वयोवृद्ध (भीष्म); पितामहः – पितामह, बाबा; सिंह-नादम् – सिंह की सी गर्जना; विनद्य – गरज कर; उच्चैः - उच्च स्वर से; शङखम् – शंख; दध्मौ – बजाया; प्रताप-वान् – बलशाली |
भावार्थ
तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध पितामह ने सिंह-गर्जना की सी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया, जिससे दुर्योधन को हर्ष हुआ |
तात्पर्य
कुरुवंश के वयोवृद्ध पितामह अपने पौत्र दुर्योधन का मनोभाव जान गये और उनके प्रति अपनी स्वाभाविक दयावश उन्होंनेउसे प्रसन्न करने के लिए अत्यन्त उच्च स्वर से अपना शंख बजाया जो उनकी सिंह के समान स्थिति के अनुरूप था | अप्रत्यक्ष रूप में शंख के द्वारा प्रतीकात्मक ढंग से उन्होंने अपने हताश पौत्र दुर्योधन को बता दिया कि उन्हें युद्ध में विजय की आशा नहीं है क्योंकि दुसरे पक्ष में साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण हैं | फिर भी युद्ध का मार्गदर्शन करना उनका कर्तव्य था और इस सम्बन्ध में वे कोई कसर नहीं रखेंगे |
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