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Bhagavad Gita chapter 2 text 7

Day 31 ( January 31 )

TEXT 7

kārpaṇya-doṣopahata-svabhāvaḥ

pṛcchāmi tvāṁ dharma-sammūḍha-cetāḥ

yac chreyaḥ syān niścitaṁ brūhi tan me

śiṣyas te 'haṁ śādhi māṁ tvāṁ prapannam

SYNONYMS

kārpaṇyamiserly; doṣa—weakness; upahatabeing inflicted by; svabhāvaḥcharacteristics; pṛcchāmiI am asking; tvāmunto You; dharmareligion; saṁmūḍhabewildered; cetāḥin heart; yatwhat; śreyaḥall-good; syātmay be; niścitamconfidently; brūhitell; tatthat; me—unto me; śiṣyaḥdisciple; teYour; ahamI am; śādhijust instruct; māmme; tvāmunto You; prapannamsurrendered.

TRANSLATION

Now I am confused about my duty and have lost all composure because of weakness. In this condition I am asking You to tell me clearly what is best for me. Now I am Your disciple, and a soul surrendered unto You. Please instruct me.

PURPORT

By nature's own way the complete system of material activities is a source of perplexity for everyone. In every step there is perplexity, and therefore it behooves one to approach a bona fide spiritual master who can give one proper guidance for executing the purpose of life. All Vedic literatures advise us to approach a bona fide spiritual master to get free from the perplexities of life which happen without our desire. They are like a forest fire that somehow blazes without being set by anyone. Similarly, the world situation is such that perplexities of life automatically appear, without our wanting such confusion. No one wants fire, and yet it takes place, and we become perplexed. The Vedic wisdom therefore advises that in order to solve the perplexities of life and to understand the science of the solution, one must approach a spiritual master who is in the disciplic succession. A person with a bona fide spiritual master is supposed to know everything. One should not, therefore, remain in material perplexities but should approach a spiritual master. This is the purport of this verse.

Who is the man in material perplexities? It is he who does not understand the problems of life. In the Garga Upaniṣad the perplexed man is described as follows:

yo etad akṣaraṁ gārgy aviditvāsmāl lokāt praiti sa kṛpaṇaḥ

"He is a miserly man who does not solve the problems of life as a human and who thus quits this world like the cats and dogs, without understanding the science of self-realization." This human form of life is a most valuable asset for the living entity who can ultilize it for solving the problems of life; therefore, one who does not utilize this opportunity properly is a miser. On the other hand, there is the brāhmaṇa, or he who is intelligent enough to utilize this body to solve all the problems of life.

The kṛpaṇas, or miserly persons, waste their time in being overly affectionate for family, society, country, etc., in the material conception of life. One is often attached to family life, namely to wife, children and other members, on the basis of "skin disease." The kṛpaṇa thinks that he is able to protect his family members from death; or the kṛpaṇa thinks that his family or society can save him from the verge of death. Such family attachment can be found even in the lower animals who take care of children also. Being intelligent, Arjuna could understand that his affection for family members and his wish to protect them from death were the causes ot his perplexities. Although he could understand that his duty to fight was awaiting him, still, on account of miserly weakness, he could not discharge the duties. He is therefore asking Lord Kṛṣṇa, the supreme spiritual master, to make a definite solution. He offers himself to Kṛṣṇa as a disciple. He wants to stop friendly talks. Talks between the master and the disciple are serious, and now Arjuna wants to talk very seriously before the recognized spiritual master. Kṛṣṇa is therefore the original spiritual master of the science of Bhagavad-gītā, and Arjuna is the first disciple for understanding the Gītā. How Arjuna understands the Bhagavad-gītā is stated in the Gītā itself. And yet foolish mundane scholars explain that one need not submit to Kṛṣṇa as a person, but to "the unborn within Kṛṣṇa." There is no difference between Kṛṣṇa's within and without. And one who has no sense of this understanding is the greatest fool in trying to understand Bhagavad-gītā.



अध्याय 2 : गीता का सार

श्लोक 2 . 7


कार्पण्यदोषोपहतस्वभावःपृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे      शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || ७ ||

कार्पण्य – कृपणता; दोष – दुर्बलता से; उपहत – ग्रस्त; स्वभावः – गुण, विशेषताएँ; पृच्छामि – पूछ रहा हूँ; त्वाम् – तुम से; सम्मूढ – मोहग्रस्त; चेताः – हृदय में; यत् – जो; श्रेयः – कल्याणकारी; स्यात् – हो; निश्र्चितम् – विश्र्वासपूर्वक; ब्रूहि – कहो; तत् – वह; मे – मुझको; शिष्यः – शिष्य; ते – तुम्हारा; अहम् – मैं; शाधि – उपदेश दीजिये; माम् – मुझको; त्वाम् – तुम्हारा; प्रपन्नम – शरणागत |


भावार्थ

अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |

 


 तात्पर्य

 

यह प्राकृतिक नियम है कि भौतिक कार्यकलाप की प्रणाली ही हर एक के लिए चिंता का कारण है | पग-पग पर उलझन मिलती है, अतः प्रामाणिक गुरु के पास जाना आवश्यक है, जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए समुचित पथ-निर्देश दे सके | समग्र वैदिक ग्रंथ हमें यह उपदेश देते हैं कि जीवन की अनचाही उलझनों से मुक्त होने के लिए प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए | ये उलझनें उस दावाग्नि के समान हैं जो किसी के द्वारा लगाये बिना भभक उठती हैं | इसी प्रकार विश्र्व की स्थिति ऐसी है कि बिना चाहे जीवन की उलझनें स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं | कोई नहीं चाहता कि आग लगे, किन्तु फिर भी वह लगती है और हम अत्याधिक व्याकुल हो उठते हैं | अतः वैदिक वाङमय उपदेश देता है कि जीवन की उलझनों को समझने तथा समाधान करने के लिए हमें परम्परागत गुरु के पास जाना चाहिए | जिस व्यक्ति का प्रामाणिक गुरु होता है वह सब कुछ जानता है | अतः मनुष्य को भौतिक उलझनों में न रह कर गुरु के पास जाना चाहिए | यही इस श्लोक का तात्पर्य है |




आखिर भौतिक उलझनों में कौन सा व्यक्ति पड़ता है? वह जो जीवन की समस्याओं को नहीं समझता | बृहदारण्यक उपनिषद् में (३.८.१०) व्याकुल (व्यग्र) मनुष्य का वर्णन इस प्रकार हुआ है –



यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माँल्लोकात्प्रैतिसकृपणः



– “कृपण वह है जो मानव जीवन की समस्याओं को हल नहीं करता और आत्म-साक्षात्कार के विज्ञान को समझे बिना कूकर-सूकर की भाँति संसार को त्यागकर चला जाता है |” जीव के लिए मनुष्य जीवन अत्यन्त मूल्यवान निधि है, जिसका उपयोग वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने में कर सकता है, अतः जो इस अवसर का लाभ नहीं उठाता वह कृपण है | ब्राह्मण इसके विपरीत होता है जो इस शरीर का उपयोग जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने में करता है | य एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माँल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मणः | 




देहात्मबुद्धि वश कृपण या कंजूस लोग अपना सारा समय परिवार, समाज, देश आदि के अत्यधिक प्रेम में गवाँ देते हैं | मनुष्य प्राय चर्मरोग के आधार पर अपने पारिवारिक जीवन अर्थात् पत्नी, बच्चों तथा परिजनों में आसक्त रहता है | कृपण यह सोचता है कि वह अपने परिवार को मृत्यु से बचा सकता है अथवा वह यह सोचता है कि उसका परिवार या समाज उसे मृत्यु से बचा सकता है | ऐसी पारिवारिक आसक्ति निम्न पशुओं में भी पाई जाती है क्योंकि वे भी बच्चों की देखभाल करते हैं | बुद्धिमान् होने के कारण अर्जुन समझ गया कि पारिवारिक सदस्यों के प्रति उसका अनुराग तथा मृत्यु से उनकी रक्षा करने की उसकी इच्छा ही उसकी उलझनों का कारण है | यद्यपि वह समझ रहा था कि युद्ध करने का कर्तव्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, किन्तु कृपण-दुर्बलता (कार्पण्यदोष) के कारण वह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा था | अतः वह परम गुरु भगवान् कृष्ण से कोई निश्चित हल निकालने का अनुरोध कर रहा है | वह कृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण करता है | वह मित्रतापूर्ण बातें बंद करना चाहता है | गुरु तथा शिष्य की बातें गम्भीर होती हैं और अब अर्जुन अपने मान्य गुरु के समक्ष गम्भीरतापूर्वक बातें करना चाहता है इसीलिए कृष्ण भगवद्गीता-ज्ञान के आदि गुरु है और अर्जुन गीता समझने वाला प्रथम शिष्य है | अर्जुन भगवद्गीता को किस तरह समझता है यह गीता में वर्णित है | तो भी मुर्ख संसारी विद्वान् बताते हैं कि किसी को मनुष्य-रूप कृष्ण की नहीं बल्कि “अजन्मा कृष्ण” की शरण ग्रहण करनी चाहिए | कृष्ण के अन्तः तथा बाह्य में कोई अन्तर नहीं है | इस ज्ञान के बिना जो भगवद्गीता को समझने का प्रयास करता है, वह सबसे बड़ा मुर्ख है |

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