Bhagavad Gita chapter 2 text 5 - 6
Day 30 ( January 30 )
TEXT 5
gurūn ahatvā hi mahānubhāvān
śreyo bhoktuṁ bhaikṣyam apīha loke
hatvārtha-kāmāṁs tu gurūn ihaiva
bhuñjīya bhogān rudhira-pradigdhān
SYNONYMS
gurūn—the superiors; ahatvā—by killing; hi—certainly; mahā-anubhāvān—great souls; śreyaḥ—it is better; bhoktum—to enjoy life; bhaikṣyam—begging; api—even; iha—in this life; loke—in this world; hatvā—killing; artha—gain; kāmān—so desiring; tu—but; gurūn—superiors; iha—in this world; eva—certainly; bhuñjīya—has to enjoy; bhogān—enjoyable things; rudhira—blood; pradigdhān—tainted with.
TRANSLATION
It is better to live in this world by begging than to live at the cost of the lives of great souls who are my teachers. Even though they are avaricious, they are nonetheless superiors. If they are killed, our spoils will be tainted with blood.
PURPORT
According to scriptural codes, a teacher who engages in an abominable action and has lost his sense of discrimination is fit to be abandoned. Bhīṣma and Droṇa were obliged to take the side of Duryodhana because of his financial assistance, although they should not have accepted such a position simply on financial considerations. Under the circumstances, they have lost the respectability of teachers. But Arjuna thinks that nevertheless they remain his superiors, and therefore to enjoy material profits after killing them would mean to enjoy spoils tainted with blood.
TEXT 6
na caitad vidmaḥ kataran no garīyo
yad vā jayema yadi vā no jayeyuḥ
yān eva hatvā na jijīviṣāmas
te 'vasthitāḥ pramukhe dhārtarāṣṭrāḥ
SYNONYMS
na—nor; ca—also; etat—this; vidmaḥ—do know; katarat—which; naḥ—us; garīyaḥ—better; yat—what; vā—either; jayema—conquer us; yadi—if; vā—or; naḥ—us; jayeyuḥ—conquer; yān—those; eva—certainly; hatvā—by killing; na—never; jijīviṣāmaḥ—want to live; te—all of them; avasthitāḥ—are situated; pramukhe—in the front; dhārtarāṣṭrāḥ—the sons of Dhṛtarāṣṭra.
TRANSLATION
Nor do we know which is better—conquering them or being conquered by them. The sons of Dhṛtarāṣṭra, whom if we killed we should not care to live, are now standing before us on this battlefield.
PURPORT
Arjuna did not know whether he should fight and risk unnecessary violence, although fighting is the duty of the kṣatriyas, or whether he should refrain and live by begging. If he did not conquer the enemy, begging would be his only means of subsistence. Nor was there certainty of victory, because either side might emerge victorious. Even if victory awaited them (and their cause was justified), still, if the sons of Dhṛtarāṣṭra died in battle, it would be very difficult to live in their absence. Under the circumstances, that would be another kind of defeat for them. All these considerations by Arjuna definitely prove that he was not only a great devotee of the Lord but that he was also highly enlightened and had complete control over his mind and senses. His desire to live by begging, although he was born in the royal household, is another sign of detachment. He was truly virtuous, as these qualities, combined with his faith in the words of instruction of Śrī Kṛṣṇa (his spiritual master), indicate. It is concluded that Arjuna was quite fit for liberation. Unless the senses are controlled, there is no chance of elevation to the platform of knowledge, and without knowledge and devotion there is no chance of liberation. Arjuna was competent in all these attributes, over and above his enormous attributes in his material relationships.
अध्याय 2 : गीता का सार
श्लोक 2 . 5
गुरूनहत्वा हि महानुभवान श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् || ५ ||
गुरुन् – गुरुजनों को; अहत्वा – न मार कर; हि – निश्चय ही; महा-अनुभवान् – महापुरुषों को; श्रेयः – अच्छा है; भोक्तुम् – भोगना; भैक्ष्यम् – भीख माँगकर; अपि – भी; इह – इस जीवन में; लोके – इस संसार में; हत्वा – मारकर; अर्थ – लाभ भी; कामान् – इच्छा से; तु – लेकिन; गुरुन् – गुरुजनों को; इह – इस संसार में; एव – निश्चय ही; भुञ्जीय – भोगने के लिए बाध्य; भोगान् – भोग्य वस्तुएँ; रुधिर – रक्त से; प्रदिग्धान् – सनी हुई, रंजित |
भावार्थ
ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है | भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, किन्तु हैं तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु अनके रक्त से सनी होगी |
तात्पर्य
शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो निंद्य कर्म में रत हो और जो विवेकशून्य हो, त्याज्य है | दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण भीष्म तथा द्रोण उसका पक्ष लेने के लिए बाध्य थे, यद्यपि केवल आर्थिक लाभ से ऐसा करना उनके लिए उचित न था | ऐसी दशा में वे आचार्यों का सम्मान खो बैठे थे | किन्तु अर्जुन सोचता है कि इतने पर भी वे उसके गुरुजन हैं, अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करने का अर्थ होगा – रक्त से सने अवशेषों का भोग |
अध्याय 2 : गीता का सार
श्लोक 2 . 6
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु: | यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेSवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः || ६ ||
न – नहीं; च – भी; एतत् – यह; विद्मः – हम जानते हैं; कतरत् – जो; नः – हमारे लिए; गरीयः – श्रेष्ठ; यत् वा – अथवा; जयेम – हम जीत जाएँ; यदि – यदि; वा – या; नः – हमको; जयेयुः – वे जीतें; यान् – जिनको; एव – निश्चय ही; हटवा – मारकर; न – कभी नहीं; जिजीविषामः – हम जीना चाहेंगे; ते – वे सब; अवस्थिताः – खड़े हैं; प्रमुखे – सामने; धार्तराष्ट्राः – धृतराष्ट्र के पुत्र |
भावार्थ
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है – उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना | यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है | फिर भी वे युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं |
तात्पर्य
अर्जुन की समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह क्या करे – युद्ध करे और अनावश्यक रक्तपात का कारण बने, यद्यपि क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म है; या फिर वह युद्ध से विमुख हो कर भीख माँग कर जीवन-यापन करे | यदि वह शत्रु को जीतता नहीं तो जीविका का एकमात्र साधन भिक्षा ही रह जाता है | यदि उसकी विजय हो भी जाय (क्योंकि उसका पक्ष न्याय पर है), तो भी यदि धृतराष्ट्र के पुत्र मरते हैं, तो उनके बिना रह पाना अत्यन्त कठिन हो जायेगा | उस दशा में यह उसकी दूसरे प्रकार की हार होगी | अर्जुन द्वारा व्यक्त इस प्रकार के विचार सिद्ध करते हैं कि वह न केवल भगवान् का महान भक्त था, अपितु वह अत्यधिक प्रबुद्ध और अपने मन तथा इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखने वाला था | राज परिवार में जन्म लेकर भी भिक्षा द्वारा जीवित रहने कि इच्छा उसकी विरक्ति का दूसरा लक्षण है | ये सारे गुण तथा अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीकृष्ण के उपदेशों में उसकी श्रद्धा, ये सब मिलकर सूचित करते हैं कि वह सचमुच पुण्यात्मा था | इस तरह यह निष्कर्ष निकला कि अर्जुन मुक्ति के सर्वथा योग्य था | जब तक इन्द्रियाँ संयमित न हों, ज्ञान के पद तक उठ पाना कठिन है और बिना ज्ञान तथा भक्ति के मुक्ति नहीं होती | अर्जुन अपने भौतिक गुणों के अतिरिक्त इस समस्त दैवी गुणों में भी दक्ष था |
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