Bhagavad Gita chapter 2 text 3 - 4
Day 29 ( January 29 )
TEXT 3
klaibyaṁ mā sma gamaḥ pārtha
naitat tvayy upapadyate
kṣudraṁ hṛdaya-daurbalyaṁ
tyaktvottiṣṭha parantapa
SYNONYMS
klaibyam—impotence; mā—do not; sma—take it; gamaḥ—go in; pārtha—O son of Pṛthā; na—never; etat—like this; tvayi—unto you; upapadyate—is befitting; kṣudram—very little; hṛdaya—heart; daurbalyam—weakness; tyaktvā—giving up; uttiṣṭha—get up; parantapa—O chastiser of the enemies.
TRANSLATION
O son of Pṛthā, do not yield to this degrading impotence. It does not become you. Give up such petty weakness of heart and arise, O chastiser of the enemy.
PURPORT
Arjuna was addressed as the "son of Pṛthā," who happened to be the sister of Kṛṣṇa's father Vasudeva. Therefore Arjuna had a blood relationship with Kṛṣṇa. If the son of a ksatriya declines to fight, he is a kṣatriya in name only, and if the son of a brāhmaṇa acts impiously, he is a brāhmaṇa in name only. Such kṣatriyas and brāhmaṇas are unworthy sons of their fathers; therefore, Kṛṣṇa did not want Arjuna to become an unworthy son of a kṣatriya. Arjuna was the most intimate friend of Kṛṣṇa, and Kṛṣṇa was directly guiding him on the chariot; but in spite of all these credits, if Arjuna abandoned the battle, he would be committing an infamous act; therefore Kṛṣṇa said that such an attitude in Arjuna did not fit his personality. Arjuna might argue that he would give up the battle on the grounds of his magnanimous attitude for the most respectable Bhīṣma and his relatives, but Kṛṣṇa considered that sort of magnanimity not approved by authority. Therefore, such magnanimity or so-called nonviolence should be given up by persons like Arjuna under the direct guidance of Kṛṣṇa.
TEXT 4
arjuna uvāca
kathaṁ bhīṣmam ahaṁ saṅkhye
droṇaṁ ca madhusūdana
iṣubhiḥ pratiyotsyāmi
pūjārhāv ari-sūdana
SYNONYMS
arjunaḥ uvāca—Arjuna said; katham—how; bhīṣmam—unto Bhīṣma; aham—I; saṅkhye—in the fight; droṇam—unto Droṇa; ca—also, madhusūdana—O killer of Madhu; iṣubhiḥ—with arrows; pratiyotsyāmi—shall counterattack; pūjā-arhau—those who are worshipable; arisūdana—O killer of the enemies.
TRANSLATION
Arjuna said: O killer of Madhu [Kṛṣṇa], how can I counterattack with arrows in battle men like Bhīṣma and Droṇa, who are worthy of my worship?
PURPORT
Respectable superiors like Bhīṣma the grandfather and Droṇācārya the teacher are always worshipable. Even if they attack, they should not be counterattacked. It is general etiquette that superiors are not to be offered even a verbal fight. Even if they are sometimes harsh in behavior, they should not be harshly treated. Then, how is it possible for Arjuna to counterattack them? Would Kṛṣṇa ever attack His own grandfather, Ugrasena, or His teacher, Sāndīpani Muni? These were some of the arguments by Arjuna to Kṛṣṇa.
अध्याय 2 : गीता का सार
श्लोक 2 . 3
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परन्तप || ३ ||
क्लैब्यम् – नपुंसकता; मा स्म – मत; गमः – प्राप्त हो; पार्थ – हे पृथापुत्र; न – कभी नहीं; एतत् – यह; त्वयि – तुमको; उपपद्यते – शोभा देता है; क्षुद्रम् – तुच्छ; हृदय – हृदय की; दौर्बल्यम् – दुर्बलता; त्यक्त्वा – त्याग कर; उत्तिष्ठ – खड़ा हो; परम्-तप – हे शत्रुओं का दमन करने वाले |
भावार्थ
हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ | यह तुम्हेँ शोभा नहीं देती | हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ |
तात्पर्य
अर्जुन को पृथापुत्र के रूप में सम्बोधित किया गया है | पृथा कृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थीं, अतः कृष्ण के साथ अर्जुन का रक्त-सम्बन्ध था | यदि क्षत्रिय-पुत्र लड़ने से मना करता है तो वह नाम का क्षत्रिय है और यदि ब्राह्मण पुत्र अपवित्र कार्य करता है तो वह नाम का ब्राह्मण है | ऐसे क्षत्रिय तथा ब्राह्मण अपने पिता के अयोग्य पुत्र होते हैं, अतः कृष्ण यह नहीं चाहते थे कि अर्जुन अयोग्य क्षत्रिय पुत्र कहलाए | अर्जुन कृष्ण का घनिष्ठतम मित्र था और कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से उसके रथ का संचालन कर रहे थे, किन्तु इन सब गुणों के होते हुए भी यदि अर्जुन युद्धभूमि को छोड़ता है तो वह अत्यन्त निन्दनीय कार्य करेगा | अतः कृष्ण ने कहा कि ऐसी प्रवृत्ति अर्जुन के व्यक्तित्व को शोभा नहीं देती | अर्जुन यह तर्क कर सकता था कि वह परम पूज्य भीष्म तथा स्वजनों के प्रति उदार दृष्टिकोण के कारण युद्धभूमि छोड़ रहा है, किन्तु कृष्ण ऐसी उदारता को केवल हृदय दौर्बल्य मानते हैं | ऐसी झूठी उदारता का अनुमोदन एक भी शास्त्र नहीं करता | अतः अर्जुन जैसे व्यक्ति को कृष्ण के प्रत्यक्ष निर्देशन में ऐसी उदारता या तथाकथित अहिंसा का परित्याग कर देना चाहिए |
श्लोक 2 . 4
अर्जुन उवाचकथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन |
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन || ४ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; कथम् – किस प्रकार; भीष्मम् – भीष्म को; अहम् – मैं; संख्ये – युद्ध में; द्रोणम् – द्रोण को; च – भी; मधुसूदन – हे मधु के संहारकर्ता; इषुभिः – तीरों से; प्रतियोत्स्यामि – उलट कर प्रहार करूँगा; पूजा-अर्हौ – पूजनीय; अरि-सूदन – हे शत्रुओं के संहारक!
भावार्थ
अर्जुन ने कहा – हे शत्रुहन्ता! हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उलट कर बाण चलाऊँगा?
तात्पर्य
भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य जैसे सम्माननीय व्यक्ति सदैव पूजनीय हैं | यदि वे आक्रमण भी करें तो उन पर उलट कर आक्रमण नहीं करना चाहिए | यह सामान्य शिष्टाचार है कि गुरुजनों से वाग्युद्ध भी न किया जाय | तो फिर भला अर्जुन उन पर बाण कैसे छोड़ सकता था? क्या कृष्ण कभी अपने पितामह, नाना उग्रसेन या अपने आचार्य सान्दीपनि मुनि पर हाथ चला सकते थे? अर्जुन ने कृष्ण के समक्ष ये ही कुछ तर्क प्रस्तुत किये |
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