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Bhagavad Gita chapter 1 text 45 46

Day 26 ( January 26 )

TEXT 45

yadi mām apratīkāram

aśastraṁ śastra-pāṇayaḥ

dhārtarāṣṭrā raṇe hanyus

tan me kṣemataraṁ bhavet

SYNONYMS

yadieven if; māmunto me; apratīkāramwithout being resistant; aśastramwithout being fully equipped; śastra-pāṇayaḥthose with weapons in hand; dhārtarāṣṭrāḥthe sons of Dhṛtarāṣṭra; raṇein the battlefield; hanyuḥmay kill; tatthat; me—mine; kṣematarambetter; bhavetbecome.

TRANSLATION

I would consider it better for the sons of Dhṛtarāṣṭra to kill me unarmed and unresisting, rather than fight with them.

PURPORT

It is the custom—according to kṣatriya fighting principles—that an unarmed and unwilling foe should not be attacked. Arjuna, however, in such an enigmatic position, decided he would not fight if he were attacked by the enemy. He did not consider how much the other party was bent upon fighting. All these symptoms are due to softheartedness resulting from his being a great devotee of the Lord.

TEXT 46

sañjaya uvāca

evam uktvārjunaḥ saṅkhye

rathopastha upāviśat

visṛjya sa-śaraṁ cāpaṁ

śoka-saṁvigna-mānasaḥ

SYNONYMS

sañjayaḥSañjaya; uvācasaid; evamthus; uktvāsaying; arjunaḥArjuna; saṅkhyein the battlefield; rathachariot; upasthaḥsituated on; upāviśatsat down again; visṛjyakeeping aside; sa-śaramalong with arrows; cāpamthe bow; śokalamentation; saṁvignadistressed; mānasaḥwithin the mind.

TRANSLATION

Sañjaya said: Arjuna, having thus spoken on the battlefield, cast aside his bow and arrows and sat down on the chariot, his mind overwhelmed with grief.

PURPORT

While observing the situation of his enemy, Arjuna stood up on the chariot, but he was so afflicted with lamentation that he sat down again, setting aside his bow and arrows. Such a kind and softhearted person, in the devotional service of the Lord, is fit to receive self-knowledge.

Thus end the Bhaktivedanta Purports to the First Chapter of the Śrīmad-Bhagavad-gītā in the matter of Observing the Armies on the Battlefield of Kurukṣetra.



अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1 . 45


यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः |
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् || ४५ ||

 

यदि – यदि; माम् – मुझको; अप्रतिकारम् – प्रतिरोध न करने के कारण; अशस्त्रम् – बिना हथियार के; शस्त्र-पाणयः – शस्त्रधारी; धार्तराष्ट्राः – धृतराष्ट्र के पुत्र; रणे – युद्धभूमि में; हन्युः – मारें; तत् – वह; मे – मेरे लिए; क्षेम-तरम् – श्रेयस्कर; भवेत् – होगा |
 
भावार्थ
 

यदि शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ निहत्थे तथा रणभूमि में प्रतिरोध न करने वाले को मारें, तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा ।

 


 तात्पर्य



क्षत्रियों के युद्ध-नियमों के अनुसार ऐसी प्रथा है कि निहत्थे तथा विमुख शत्रु पर आक्रमण न किया जाय | किन्तु अर्जुन ने निश्चय किया कि शत्रु भले ही इस विषम अवस्था में उस पर आक्रमण कर दें, किन्तु वह युद्ध नहीं करेगा | उसने इस पर विचार नहीं किया कि दूसरा दल युद्ध के लिए कितना उद्यत है | इस सब लक्षणों का कारण उसकी दयाद्रता है जो भगवान् के महान भक्त होने के कारण उत्पन्न हुई |
 


श्लोक 1 . 46


सञ्जय उवाच


एवमुक्तवार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |


विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः || ४६ ||


 
सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्त्वा – कहकर; अर्जुनः – अर्जुन; संख्ये – युद्धभूमि में; रथ – रथ के; उपस्थे – आसन पर; उपाविशत् – पुनः बैठ गया; विसृज्य – एक ओर रखकर; स-शरम् – बाणों सहित; चापम् – धनुष को; शोक – शोक से; संविग्न – संतप्त, उद्विग्न; मानसः – मन के भीतर |
 
भावार्थ
 

संजय ने कहा – युद्धभूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपना धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया और शोकसंतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया |

 


 तात्पर्य



अपने शत्रु की स्थिति का अवलोकन करते समय अर्जुन रथ पर खड़ा हो गया था, किन्तु वह शोक से इतना संतप्त हो उठा कि अपना धनुष-बाण एक ओर रख कर रथ के आसन पर पुनः बैठ गया | ऐसा दयालु तथा कोमलहृदय व्यक्ति, जो भगवान् की सेवा में रत हो, आत्मज्ञान प्राप्त करने योग्य है |

इस प्रकार भगवद्गीता के प्रथम अध्याय 

“कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरिक्षण” 

का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |

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