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Bhagavad Gita chapter 1 text 43 44

Day 25 ( January 25 )

TEXT 43

utsanna-kula-dharmāṇāṁ

manuṣyāṇāṁ janārdana

narake niyataṁ vāso

bhavatīty anuśuśruma

SYNONYMS

utsannaspoiled; kula-dharmāṇāmof those who have the family traditions; manuṣyāṇāmof such men; janārdana—O Kṛṣṇa; narakein hell; niyatamalways; vāsaḥresidence; bhavatiit so becomes; itithus; anuśuśrumaI have heard by disciplic succession.

TRANSLATION

O Kṛṣṇa, maintainer of the people, I have heard by disciplic succession that those who destroy family traditions dwell always in hell.

PURPORT

Arjuna bases his argument not on his own personal experience, but on what he has heard from the authorities. That is the way of receiving real knowledge. One cannot reach the real point of factual knowledge without being helped by the right person who is already established in that knowledge. There is a system in the varṇāśrama institution by which one has to undergo the process of ablution before death for his sinful activities. One who is always engaged in sinful activities must utilize the process of ablution called the prāyaścitta. Without doing so, one surely will be transferred to hellish planets to undergo miserable lives as the result of sinful activities.

TEXT 44

aho bata mahat pāpaṁ

kartuṁ vyavasitā vayam

yad rājya-sukha-lobhena

hantuṁ sva-janam udyatāḥ

SYNONYMS

ahaḥalas; batahow strange it is; mahatgreat; pāpamsins; kartumto perform; vyavasitāḥdecided; vayamwe; yatso that; rājyakingdom; sukha-lobhenadriven by greed for royal happiness; hantumto kill; svajanamkinsmen; udyatāḥtrying for.

TRANSLATION

Alas, how strange it is that we are preparing to commit greatly sinful acts, driven by the desire to enjoy royal happiness.

PURPORT

Driven by selfish motives, one may be inclined to such sinful acts as the killing of one's own brother, father, or mother. There are many such instances in the history of the world. But Arjuna, being a saintly devotee of the Lord, is always conscious of moral principles and therefore takes care to avoid such activities.



अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1 . 43








उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन |नरके नियतं वासो भवतीत्यनुश्रुश्रुम || ४३ ||

 
उत्सन्न – विनष्ट; कुल-धर्माणाम् – पारिवारिक परम्परा वाले; मनुष्याणाम् – मनुष्यों का; जनार्दन – हे कृष्ण; नरके – नरक में; नियतम् – सदैव; वासः – निवास; भवति – होता है; इति – इस प्रकार; अनुशुश्रुम – गुरु-परम्परा से मैनें सुना है |
 
भावार्थ
 

हे प्रजापालक कृष्ण! मैनें गुरु-परम्परा से सुना है कि जो लोग कुल-धर्म का विनाश करते हैं, वे सदैव नरक में वास करते हैं |

 


 तात्पर्य

 


अर्जुन अपने तर्कों को अपने निजी अनुभव पर न आधारित करके आचार्यों से जो सुन रखा है उस पर आधारित करता है | वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की यही विधि है | जिस व्यक्ति ने पहले से ज्ञान प्राप्त कर रखा है उस व्यक्ति की सहायता के बिना कोई भी वास्तविक ज्ञान तक नहीं पहुँच सकता | वर्णाश्रम-धर्म की एक पद्धति के अनुसार मृत्यु के पूर्व मनुष्य को पापकर्मों के लिए प्रायश्चित्त करना होता है | जो पापात्मा है उसे इस विधि का अवश्य उपयोग करना चाहिए | ऐसा किये बिना मनुष्य निश्चित रूप से नरक भेजा जायेगा जहाँ उसे अपने पापकर्मों के लिए कष्टमय जीवन बिताना होगा |


श्लोक 1 . 44



अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः || ४४ ||

 
अहो – ओह; बत – कितना आश्चर्य है यह; महत् – महान; पापम् – पाप कर्म; कर्तुम् – करने के लिए; व्यवसिता – निश्चय किया है; वयम् – हमने; यत् – क्योंकि; राज्य-सुख-लोभेन – राज्य-सुख के लालच में आकर; हन्तुम् – मारने के लिए; स्वजनम् – अपने सम्बन्धियों को; उद्यताः – तत्पर |
 

भावार्थ
 

ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं | राज्यसुख भोगने कि इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं |

 


 तात्पर्य

 


स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य अपने सगे भाई, बाप या माँ के वध जैसे पापकर्मों में प्रवृत्त हो सकता है | विश्र्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं | किन्तु भगवान् का साधु भक्त होने के कारण अर्जुन सदाचार के प्रति जागरूक है | अतः वह ऐसे कार्यों से बचने का प्रयत्न करता है |

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