Bhagavad Gita chapter 1 text 28
Day 14 ( January 14 )
TEXT 28
arjuna uvāca
dṛṣṭvemaṁ sva-janaṁ kṛṣṇa
yuyutsuṁ samupasthitam
sīdanti mama gātrāṇi
mukhaṁ ca pariśuṣyati
SYNONYMS
arjunaḥ—Arjuna; uvāca—said; dṛṣṭvā—after seeing; imam—all these; svajanam—kinsmen; kṛṣṇa—O Kṛṣṇa; yuyutsum—all in fighting spirit; samupasthitam—all present; sīdanti—quivering; mama—my; gātrāṇi—limbs of the body; mukham—mouth; ca—also; pariśuṣyati—drying up.
TRANSLATION
Arjuna said: My dear Kṛṣṇa, seeing my friends and relatives present before me in such a fighting spirit, I feel the limbs of my body quivering and my mouth drying up.
PURPORT
Any man who has genuine devotion to the Lord has all the good qualities which are found in godly persons or in the demigods, whereas the nondevotee, however advanced he may be in material qualifications by education and culture, lacks in godly qualities. As such, Arjuna, just after seeing his kinsmen, friends and relatives on the battlefield, was at once overwhelmed by compassion for them who had so decided to fight amongst themselves. As far as his soldiers were concerned, he was sympathetic from the beginning, but he felt compassion even for the soldiers of the opposite party, foreseeing their imminent death. And so thinking, the limbs of his body began to quiver, and his mouth became dry. He was more or less astonished to see their fighting spirit. Practically the whole community, all blood relatives of Arjuna, had come to fight with him. This overwhelmed a kind devotee like Arjuna. Although it is not mentioned here, still one can easily imagine that not only were Arjuna's bodily limbs quivering and his mouth drying up, but that he was also crying out of compassion. Such symptoms in Arjuna were not due to weakness but to his softheartedness, a characteristic of a pure devotee of the Lord. It is said therefore:
yasyāsti bhaktir bhagavaty akiñcanā
sarvair guṇais tatra samāsate surāḥ
harāv abhaktasya kuto mahad-guṇā
mano-rathenāsati dhāvato bahiḥ
"One who has unflinching devotion for the Personality of Godhead has all the good qualities of the demigods. But one who is not a devotee of the Lord has only material qualifications that are of little value. This is because he is hovering on the mental plane and is certain to be attracted by the glaring material energy." (Bhāg. 5.18.12)
अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण
श्लोक 1 . 28
अर्जुन उवाचदृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् |
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिश्रुष्यति || २८ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; दृष्ट्वा – देख कर; इमम् – इन सारे; स्वजनम् – सम्बन्धियों को; कृष्ण – हे कृष्ण; युयुत्सुम् – युद्ध की इच्छा रखने वाले; समुपस्थितम् – उपस्थित; सीदन्ति – काँप रहे हैं; मम – मेरे; गात्राणि – शरीर के अंग; मुखम् – मुँह; च – भी; परिशुष्यति – सूख रहा है |
भावार्थ
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! इस प्रकार युद्ध कि इच्छा रखने वाले मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे हैं और मेरा मुँह सूखा जा रहा है |
तात्पर्य
यथार्थ भक्ति से युक्त मनुष्य में वे सारे सद्गुण रहते हैं जो सत्पुरुषों या देवताओं में पाये जाते हैं जबकि अभक्त अपनी शिक्षा या संस्कृति के द्वारा भौतिक योग्यताओं में चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो इस इश्र्वरीय गुणों से विहीन होता है | अतः स्वजनों, मित्रों तथा सम्बन्धियों को युद्धभूमि में देखते ही अर्जुन उन सबों के लिए करुणा से अभिभूत हो गया, जिन्होनें परस्पर युद्ध करने का निश्चय किया था | जहाँ तक उसके अपने सैनिकों का सम्बन्ध थे, वह उनके प्रति प्रारम्भ से दयालु था, किन्तु विपक्षी दल के सैनिकों कि आसन्न मृत्यु को देखकर वह उन पर भी दया का अनुभव कर रहा था | और जब वह इस प्रकार सोच रहा था तो उसके अंगों में कंपन होने लगा और मुँह सूख गया | उन सबको युद्धाभिमुख देखकर उसे आश्चर्य भी हुआ | प्रायः सारा कुटुम्ब, अर्जुन के सगे सम्बन्धी उससे युद्ध करने आये थे | यद्यपि इसका उल्लेख नहीं है, किन्तु तो भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि न केवल उसके अंग काँप रहे थे और मुँख सूख रहा था अपितु वह दयावश रुदन भी कर रहा था | अर्जुन में ऐसे लक्षण किसी दुर्बलता के कारण नहीं अपितु हृदय की कोमलता के कारण थे जो भगवान् के शुद्ध भक्त का लक्षण है | अतः कहा गया है –यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिंचना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः |हरावभक्तस्य कुतो महाद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः ||“जो भगवान के प्रति अविचल भक्ति रखता है उसमें देवताओं के सद्गुण पाये जाते हैं | किन्तु जो भगवद्भक्त नहीं है उसके पास भौतिक योग्यताएँ ही रहती हैं जिनका कोई मूल्य नहीं होता | इसका कारण यह है कि वह मानसिक धरातल पर मँडराता रहता है और ज्वलन्त माया के द्वारा अवश्य ही आकृष्ट होता है |” (भागवत ५.९१८.१२)
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