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Bhagavad Gita chapter 1 text 26 , 27

Day 13 ( January 13 )

TEXT 26

tatrāpaśyat sthitān pārthaḥ

pitṝn atha pitāmahān

ācāryān mātulān bhrātṝn

putrān pautrān sakhīṁs tathā

śvaśurān suhṛdaś caiva

senayor ubhayor api

SYNONYMS

tatrathere; apaśyathe could see; sthitānstanding; pārthaḥArjuna; pitṝnfathers; athaalso; pitāmahāngrandfathers; ācāryānteachers; mātulānmaternal uncles; bhrātṝnbrothers; putrānsons ; pautrāngrandsons; sakhīnfriends; tathātoo, śvaśurān—fathers-in-law; suhṛdaḥwellwishers; caalso; evacertainly; senayoḥof the armies; ubhayoḥof both parties; apiincluding.

TRANSLATION

There Arjuna could see, within the midst of the armies of both parties, his fathers, grandfathers, teachers, maternal uncles, brothers, sons, grandsons, friends, and also his father-in-law and well-wishers-all present there.

PURPORT

On the battlefield Arjuna could see all kinds of relatives. He could see persons like Bhūriśravā, who were his father's contemporaries, grandfathers Bhīṣma and Somadatta, teachers like Droṇācārya and Kṛpācārya, maternal uncles like Śalya and Śakuni, brothers like Duryodhana, sons like Lakṣmaṇa, friends like Aśvatthāmā, well-wishers like Kṛtavarmā, etc. He could see also the armies which contained many of his friends.

TEXT 27

tān samīkṣya sa kaunteyaḥ

sarvān bandhūn avasthitān

kṛpayā parayāviṣṭo

viṣīdann idam abravīt

SYNONYMS

tānall of them; samīkṣyaafter seeing; saḥhe; kaunteyaḥthe son of Kuntī; sarvānall kinds of; bandhūnrelatives; avasthitānsituated; kṛpayā—by compassion; parayāof a high grade; āviṣṭaḥoverwhelmed by; viṣīdanwhile lamenting; idamthus; abravītspoke.

TRANSLATION

When the son of Kuntī, Arjuna, saw all these different grades of friends and relatives, he became overwhelmed with compassion and spoke thus:



अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1 . 26



तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् |आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा |श्र्वश्रुरान्सुहृदश्र्चैव सेनयोरुभयोरपि || २६ ||
 


तत्र – वहाँ; अपश्यत् – देखा; स्थितान् – खड़े; पार्थः – पार्थ ने; पितृन् – पितरों (चाचा-ताऊ) को; अथ – भी; पितामहान – पितामहों को; आचार्यान् – शिक्षकों को; मातुलान् – मामाओं को; भ्रातृन् – भाइयों को; पुत्रान् – पुत्रों को; पौत्रान् – पौत्रों को; सखीन् – मित्रों को; तथा – और; श्र्वशुरान् – श्र्वसुरों को; सुहृदः – शुभचिन्तकों को; च – भी; एव – निश्चय ही; सेनयोः – सेनाओं के; उभयोः – दोनों पक्षों की; अपि – सहित |
 

भावार्थ


अर्जुन ने वहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताउओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, ससुरों और शुभचिन्तकों को भी देखा |

 


 तात्पर्य

 



अर्जुन युद्धभूमि में अपने सभी सम्बंधियों को देख सका | वह अपने पिता के समकालीन भूरिश्रवा जैसे व्यक्तियों, भीष्म तथा सोमदत्त जैसे पितामहों, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य जैसे गुरुओं, शल्य तथा शकुनि जैसे मामाओं, दुर्योधन जैसे भाइयों, लक्ष्मण जैसे पुत्रों, अश्र्वत्थामा जैसे मित्रों एवं कृतवर्मा जैसे शुभचिन्तकों को देख सका | वह उन सेनाओं को भी देख सका जिनमें उसके अनेक मित्र थे |


श्लोक 1 . 27



तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् |कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् || २७ ||
 


तान् – उन सब को; समीक्ष्य – देखकर; सः – वह; कौन्तेयः – कुन्तीपुत्र; सर्वान् – सभी प्रकार के; बन्धून् – सम्बन्धियों को; अवस्थितान् – स्थित; कृपया – दयावश; परया – अत्यधिक; आविष्टः – अभिभूत; विषीदन् – शोक करता हुआ; इदम् – इस प्रकार; अब्रवीत् – बोला;
 

भावार्थ



जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रों तथा सम्बन्धियों की इन विभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला |
 

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