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Bhagavad Gita chapter 1 text 24 , 25

Day 12 ( January 12 )

TEXT 24

sañjaya uvāca

evam ukto hṛṣīkeśo

guḍākeśena bhārata

senayor ubhayor madhye

sthāpayitvā rathottamam

SYNONYMS

sañjayaḥSañjaya; uvācasaid; evamthus; uktaḥaddressed; hṛṣīkeśaḥ—Lord Kṛṣṇa; guḍākeśenaby Arjuna; bhārataO descendant of Bharata; senayoḥof armies; ubhayoḥof both; madhyein the midst of; sthāpayitvāby placing; rathottamamthe finest chariot.

TRANSLATION

Sañjaya said: O descendant of Bharata, being thus addressed by Arjuna, Lord Kṛṣṇa drew up the fine chariot in the midst of the armies of both parties.

PURPORT

In this verse Arjuna is referred to as Guḍākeśa. Guḍāka means sleep, and one who conquers sleep is called guḍākeśa. Sleep also means ignorance. So Arjuna conquered both sleep and ignorance because of his friendship with Kṛṣṇa. As a great devotee of Kṛṣṇa, he could not forget Kṛṣṇa even for a moment, because that is the nature of a devotee. Either in waking or in sleep, a devotee of the Lord can never be free from thinking of Kṛṣṇa's name, form, quality and pastimes. Thus a devotee of Kṛṣṇa can conquer both sleep and ignorance simply by thinking of Kṛṣṇa constantly. This is called Kṛṣṇa consciousness, or samādhi. As Hṛṣīkeśa, or the director of the senses and mind of every living entity, Kṛṣṇa could understand Arjuna's purpose in placing the chariot in the midst of the armies. Thus He did so, and spoke as follows.

TEXT 25

bhīṣma-droṇa-pramukhataḥ

sarveṣāṁ ca mahī-kṣitām

uvāca pārtha paśyaitān

samavetān kurūn iti

SYNONYMS

bhīṣmaGrandfather Bhīṣma; droṇathe teacher Droṇa; pramukhataḥin the front of; sarveṣāmall; caalso; mahīkṣitāmchiefs of the world; uvācasaid; pārthaO Pārtha (son of Pṛthā); paśyajust behold; etānall of them; samavetānassembled; kurūnall the members of the Kuru dynasty; itithus.

TRANSLATION

In the presence of Bhīṣma, Droṇa and all other chieftains of the world, Hṛṣīkeśa, the Lord, said, Just behold, Pārtha, all the Kurus who are assembled here.

PURPORT

As the Supersoul of all living entities, Lord Kṛṣṇa could understand what was going on in the mind of Arjuna. The use of the word Hṛṣīkeśa in this connection indicates that He knew everything. And the word Pārtha, or the son of Kuntī or Pṛthā, is also similarly significant in reference to Arjuna. As a friend, He wanted to inform Arjuna that because Arjuna was the son of Pṛthā, the sister of His own father Vasudeva, He had agreed to be the charioteer of Arjuna. Now what did Kṛṣṇa mean when He told Arjuna to "behold the Kurus"? Did Arjuna want to stop there and not fight? Kṛṣṇa never expected such things from the son of His aunt Pṛthā. The mind of Arjuna was thus predicated by the Lord in friendly joking.




अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1 . 24




सञ्जय उवाच एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् || २४ ||
 




सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्तः – कहे गये; हृषीकेशः – भगवान् कृष्ण ने; गुडाकेशेन – अर्जुन द्वारा; भारत – हे भरत के वंशज; सेनयोः – सेनाओं के; उभयोः – दोनों; मध्ये – मध्य में; स्थापयित्वा – खड़ा करके; रथ-उत्तमम् – उस उत्तम रथ को |
 


भावार्थ



संजय ने कहा - हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भगवान् कृष्ण ने दोनों दलों के बीच में उस उत्तम रथ को लाकर खड़ा कर दिया |

 


 तात्पर्य

 


इस श्लोक में अर्जुन को गुडाकेश कहा गया है | गुडाका का अर्थ है नींद और जो नींद को जीत लेता है वह गुडाकेश है | नींद का अर्थ अज्ञान भी है | अतः अर्जुन ने कृष्ण कि मित्रता के कारण नींद तथा अज्ञान दोनों पर विजय प्राप्त की थी | कृष्ण के भक्त के रूप में वह कृष्ण को क्षण भर भी नहीं भुला पाया क्योंकि भक्त का स्वभाव ही ऐसा होता है | यहाँ तक कि चलते अथवा सोते हुए भी कृष्ण के नाम, रूप, गुणों तथा लीलाओं के चिन्तन से भक्त कभी मुक्त नहीं रह सकता | अतः कृष्ण का भक्त उनका निरन्तर चिन्तन करते हुए नींद तथा अज्ञान दोनों को जीत सकता है | इसी को कृष्णभावनामृत या समाधि कहते हैं | प्रत्येक जीव कि इन्द्रियों तथा मन के निर्देशक अर्थात् हृषीकेश के रूप में कृष्ण अर्जुन के मन्तव्य को समझ गये कि वह क्यों सेनाओं के मध्य में रथ को खड़ा करवाना चाहता है | अतः उन्होंने वैसा ही किया और फिर वे इस प्रकार बोले |


श्लोक 1 . 25



भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति || २५ ||
 





भीष्म – भीष्म पितामह; द्रोण – गुरु द्रोण; प्रमुखतः – के समक्ष; सर्वेषाम् – सबों के; च – भी; महीक्षिताम् – संसार भर के राजा; उवाच – कहा; पार्थ – हे पृथा के पुत्र; पश्य – देखो; एतान् – इन सबों को; सम्वेतान् – एकत्रित; कुरुन् – कुरुवंश के सदस्यों को; इति – इस प्रकार |
 


भावार्थ


भीष्म, द्रोण तथा विश्र्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो |

 


 तात्पर्य

 


समस्त जीवों के परमात्मास्वरूप भगवान् कृष्ण यह जानते थे कि अर्जुन के मन में क्या बीत रहा है | इस प्रसंग में हृषीकेश शब्द प्रयोग सूचित करता है कि वे सब कुछ जानते थे | इसी प्रकार पार्थ शब्द अर्थात् पृथा या कुन्तीपुत्र भी अर्जुन के लिए प्रयुक्त होने के कारण महत्त्वपूर्ण है | मित्र के रूप में वे अर्जुन को बता देना चाहते थे कि चूँकि अर्जुन उनके पिता वसुदेव कि बहन पृथा का पुत्र था इसीलिए उन्होंने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया था | किन्तु जब उन्होंने अर्जुन से “कुरुओं को देखो” कहा तो इससे उनका क्या अभिप्राय था? क्या अर्जुन वहीँ पर रुक कर युद्ध करना नहीं चाहता था? कृष्ण को अपनी बुआ पृथा के पुत्र से कभी भी ऐसी आशा नहीं थी | इस प्रकार से कृष्ण ने अपने मित्र कि मनःस्थिति कि पूर्वसूचना परिहासवश दी है |

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