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Bhagavad Gita chapter 1 text 21 , 22

Day 10 ( January 10 )

TEXTS 21-22

arjuna uvāca

senayor ubhayor madhye

rathaṁ sthāpaya me 'cyuta

yāvad etān nirīkṣe 'haṁ

yoddhu-kāmān avasthitān

kair mayā saha yoddhavyam

asmin raṇa-samudyame

SYNONYMS

arjunaḥArjuna; uvācasaid; senayoḥof the armies; ubhayoḥof both the parties; madhyein between them; rathamthe chariot; sthāpayaplease keep; me—my; acyutaO infallible one; yāvatas long as; etānall these; nirīkṣemay look; ahamI; yoddhu-kāmāndesiring to fight; avasthitānarrayed on the battlefield; kaiḥwith whom; mayāby me; sahawith; yoddhavyamto fight with; asminin this; raṇastrife; samudyamein the attempt.

TRANSLATION

Arjuna said: O infallible one, please draw my chariot between the two armies so that I may see who is present here, who is desirous of fighting, and with whom I must contend in this great battle attempt.

PURPORT

Although Lord Kṛṣṇa is the Supreme Personality of Godhead, out of His causeless mercy He was engaged in the service of His friend. He never fails in His affection for His devotees, and thus He is addressed herein as infallible. As charioteer, He had to carry out the orders of Arjuna, and since He did not hesitate to do so, He is addressed as infallible. Although He had accepted the position of a charioteer for His devotee, His supreme position was not challenged. In all circumstances, He is the Supreme Personality of Godhead, Hṛṣīkeśa, the Lord of the total senses. The relationship between the Lord and His servitor is very sweet and transcendental. The servitor is always ready to render a service to the Lord, and, similarly, the Lord is always seeking an opportunity to render some service to the devotee. He takes greater pleasure in His pure devotee's assuming the advantageous postion of ordering Him than He does in being the giver of orders. As master, everyone is under His orders, and no one is above Him to order Him. But when he finds that a pure devotee is ordering Him, He obtains transcendental pleasure, although He is the infallible master of all circumstances.

As a pure devotee of the Lord, Arjuna had no desire to fight with his cousins and brothers, but he was forced to come onto the battlefield by the obstinacy of Duryodhana, who was never agreeable to any peaceful negotiation. Therefore, he was very anxious to see who the leading persons present on the battlefield were. Although there was no question of a peacemaking endeavor on the battlefield, he wanted to see them again, and to see how much they were bent upon demanding an unwanted war.





अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1 . 21 - 22



अर्जुन उवाचसेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य मेSच्युत |    यावदेतान्निरिक्षेSहं योद्धुकामानवस्थितान् || २१ ||        कैर्मया सह योद्ध व्यमस्मिन्रणसमुद्यमे || २२ ||
 



अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; सेन्योः – सेनाओं के; उभयोः – बीच में; रथम् – रथ को; स्थाप्य – कृप्या खड़ा करें; मे – मेरे; अच्युत – हे अच्युत; यावत् – जब तक; एतान् – इन सब; निरीक्षे – देख सकूँ; अहम् – मैं; योद्धु-कामान् – युद्ध की इच्छा रखने वालों को; अवस्थितान् – युद्धभूमि में एकत्र; कैः – किन किन से; मया – मेरे द्वारा; सः – एक साथ; योद्धव्यम् – युद्ध किया जाना है; अस्मिन् – इस; रन – संघर्ष, झगड़ा के; समुद्यमे – उद्यम या प्रयास में |
 




भावार्थ


अर्जुन ने कहा - हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ |

 


 तात्पर्य

 



यद्यपि श्रीकृष्ण साक्षात् श्रीभगवान् हैं, किन्तु वे अहेतुकी कृपावश अपने मित्र कि सेवा में लगे हुए थे | वे अपने भक्तों पर स्नेह दिखाने में कभी नहीं चूकते इसीलिए अर्जुन ने उन्हें अच्युत कहा है | सारथी रूप में उन्हें अर्जुन की आज्ञा का पालन करना था और उन्होंने इसमें कोई संकोच नहीं किया, अतः उन्हें अच्युत कह कर सम्बोधित किया गया है | यद्यपि उन्होंने अपने भक्त का सारथी-पद स्वीकार किया था, किन्तु इससे उनकी परम स्थिति अक्षुण्ण बनी रही | प्रत्येक परिस्थिति में वे इन्द्रियों के स्वामी श्रीभगवान् हृषीकेश हैं | भगवान् तथा उनके सेवक का सम्बन्ध अत्यन्त मधुर एवं दिव्य होता है | सेवक स्वामी की सेवा करने के लिए सदैव उद्यत रहता है और भगवान् भी भक्त कि कुछ न कुछ सेवा करने के लिए सदैव उद्यत रहता है और भगवान् भी भक्त कि कुछ न कुछ सेवा करने कि कोशिश में रहते हैं | वे इसमें विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं कि वे स्वयं आज्ञादाता न बनें अपितु उनके शुद्ध उन्हें आज्ञा दें | चूँकि वे स्वामी हैं, अतः सभी लोग उनके आज्ञापालक हैं और उनके ऊपर उनको आज्ञा देने वाला कोई नहीं है | किन्तु जब वे देखते हैं की उनका शुद्ध भक्त आज्ञा दे रहा है तो उन्हें दिव्य आनन्द मिलता है यद्यपि वे समस्त परिस्थितियों में अच्युत रहने वाले हैं |भगवान् का शुद्ध भक्त होने के कारण अर्जुन को अपने बन्धु-बान्धवों से युद्ध करने कि तनिक भी इच्छा न थी, किन्तु दुर्योधन द्वारा शान्तिपूर्ण समझौता न करके हठधर्मिता पर उतारू होने के कारण उसे युद्धभूमि में आना पड़ा | अतः वह यह जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक था कि युद्धभूमि में कौन-कौन से अग्रणी व्यक्ति उपस्थित हैं | यद्यपि युद्धभूमि में शान्ति-प्रयासों का कोई प्रश्न नहीं उठता तो भी वह उन्हें फिर से देखना चाह रहा था और यह देखना चाह रहा था कि वे इस अवांछित युद्ध पर किस हद तक तुले हुए हैं |

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