Bhagavad Gita chapter 1 text 20
Day 9 ( January 9 )
TEXT 20
atha vyavasthitān dṛṣṭvā
dhārtarāṣṭrān kapi-dhvajaḥ
pravṛtte śastra-sampāte
dhanur udyamya pāṇḍavaḥ
hṛṣīkeśaṁ tadā vākyam
idam āha mahī-pate
SYNONYMS
atha—thereupon; vyavasthitān—situated; dṛṣṭvā—looking on; dhārtarāṣṭrān—the sons of Dhṛtarāṣṭra; kapi-dhvajaḥ—one whose flag is marked with Hanumān; pravṛtte—while about to be engaged; śastra-sampāte—the arrows released; dhanuḥ—bow; udyamya—after taking up; pāṇḍavaḥ—the son of Pāṇḍu (Arjuna); hṛṣīkeśam—unto Lord Kṛṣṇa; tadā—at that time; vākyam—words; idam—these; āha—said; mahī-pate—O King.
TRANSLATION
O King, at that time Arjuna, the son of Pāṇḍu, who was seated in his chariot, his flag marked with Hanumān, took up his bow and prepared to shoot his arrows, looking at the sons of Dhṛtarāṣṭra. O King, Arjuna then spoke to Hṛṣīkeśa [Kṛṣṇa] these words:
PURPORT
The battle was just about to begin. It is understood from the above statement that the sons of Dhṛtarāṣṭra were more or less disheartened by the unexpected arrangement of military force by the Pāṇḍavas, who were guided by the direct instructions of Lord Kṛṣṇa on the battlefield. The emblem of Hanumān on the flag of Arjuna is another sign of victory because Hanumān cooperated with Lord Rāma in the battle between Rāma and Rāvaṇa, and Lord Rāma emerged victorious. Now both Rāma and Hanumān were present on the chariot of Arjuna to help him. Lord Kṛṣṇa is Rāma Himself, and wherever Lord Rāma is, His eternal servitor Hanumān and His eternal consort Sītā, the goddess of fortune, are present. Therefore, Arjuna had no cause to fear any enemies whatsoever. And above all, the Lord of the senses, Lord Kṛṣṇa, was personally present to give him direction. Thus, all good counsel was available to Arjuna in the matter of executing the battle. In such auspicious conditions, arranged by the Lord for His eternal devotee, lay the signs of assured victory.
अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण
श्लोक 1 . 20
अथ व्यवस्थितान्दृष्टवा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः |
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते || २० ||
अथ – तत्पशचात्; व्यवस्थितान् – स्थित; दृष्ट्वा – देखकर; धार्तराष्ट्रान् – धृतराष्ट्र के पुत्रों को; कपिध्वजः – जिसकी पताका पर हनुमान अंकित है; प्रवृत्ते – कटिवद्ध; शस्त्र-सम्पाते – वाण चलाने के लिए; धनुः – धनुष; उद्यम्य – ग्रहण करके, उठाकर; पाण्डवः – पाण्डुपुत्र (अर्जुन) ने; हृषीकेशम् – भगवान् कृष्ण से; तदा – उस समय; वाक्यम् – वचन; इदम् – ये; आह – कहे; मही-पते – हे राजा
भावार्थ
उस समय हनुमान से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठा कर तीर चलाने के लिए उद्यत हुआ | हे राजन् ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यूह में खड़ा देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से ये वचन कहे |
तात्पर्य
युद्ध प्रारम्भ होने ही वाला था | उपर्युक्त कथन से ज्ञात होता है कि पाण्डवों की सेना कि अप्रत्याशित व्यवस्था से धृतराष्ट्र के पुत्र बहुत कुछ निरुत्साहित थे क्योंकि युद्धभूमि में पाण्डवों का निर्देशन भगवान् कृष्ण के आदेशानुसार हो रहा था | अर्जुन की ध्वजा पर हनुमान का चिन्ह भी विजय का सूचक है क्योंकि हनुमान ने राम तथा रावण युद्ध में राम कि सहायता की थी जिससे राम विजयी हुए थे | इस समय अर्जुन कि सहायता के लिए उनके रथ पर राम तथा हनुमान दोनों उपस्थित थे | भगवान् कृष्ण साक्षात् राम हैं और जहाँ भी राम रहते हैं वहाँ नित्य सेवक हनुमान होता है तथा उनकी नित्यसंगिनी, वैभव कि देवी सीता उपस्थित रहती हैं | अतः अर्जुन के लिए किसी भी शत्रु से भय का कोई कारण नहीं था | इससे भी अधिक इन्द्रियों के स्वामी भगवान् कृष्ण निर्देश देने की लिए साक्षात् उपस्थित थे | इस प्रकार अर्जुन को युद्ध करने के मामले में सारा सत्परामर्श प्राप्त था | ऐसी स्थितियों में, जिनकी व्यवस्था भगवान् ने अपने शाश्र्वत भक्त के लिए की थी, निश्चित विजय के लक्षण स्पष्ट थे |
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