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Bhagavad Gita chapter 1 text 16 17 18 19

Day 8 ( January 8 )

TEXTS 16-18

anantavijayaṁ rājā

kuntī-putro yudhiṣṭhiraḥ

nakulaḥ sahadevaś ca

sughoṣa-maṇipuṣpakau

kāśyaś ca parameṣv-āsaḥ

śikhaṇḍī ca mahā-rathaḥ

dhṛṣṭadyumno virāṭaś ca

sātyakiś cāparājitaḥ

drupado draupadeyāś ca

sarvaśaḥ pṛthivī-pate

saubhadraś ca mahā-bāhuḥ

śaṅkhān dadhmuḥ pṛthak pṛthak

SYNONYMS

ananta-vijayam—the conch named Ananta-vijaya; rājā—the king; kuntī-putraḥ—the son of Kuntī; yudhiṣṭhiraḥYudhiṣṭhira; nakulaḥNakula; sahadevaḥSahadeva; ca—and; sughoṣa-maṇipuṣpakau—the conches named Sughoṣa and Maṇipuṣpaka; kāśyaḥ—the King of Kāśī (Vārāṇasī); ca—and; parama-iṣu-āsaḥ—the great archer; śikhaṇḍī—Śikhaṇḍī; ca—also; mahā-rathaḥ—one who can fight alone against thousands; dhṛṣṭadyumnaḥDhṛṣṭadyumna (the son of King Drupada); virāṭaḥVirāṭa (the prince who gave shelter to the Pāṇḍavas while they were in disguise); ca—also; sātyakiḥ—Sātyaki (the same as Yuyudhāna, the charioteer of Lord Kṛṣṇa); ca—and; aparājitaḥ—who had never been vanquished; drupadaḥDrupada, the King of Pāñcāla; draupadeyāḥ—the sons of Draupadī; ca—also; sarvaśaḥ—all; pṛthivī-pate—O King; saubhadraḥAbhimanyu, the son of Subhadrā; ca—also; mahā-bāhuḥ—mighty-armed; śaṅkhān—conchshells; dadhmuḥ—blew; pṛthak pṛthak—each separately.

TRANSLATION

King Yudhiṣṭhira, the son of Kuntī, blew his conchshell, the Anantavijaya, and Nakula and Sahadeva blew the Sughoṣa and Maṇipuṣpaka. That great archer the King of Kāśī, the great fighter Śikhaṇḍī, Dhṛṣṭadyumna, Virāṭa and the unconquerable Sātyaki, Drupada, the sons of Draupadī, and the others, O King, such as the son of Subhadrā, greatly armed, all blew their respective conchshells.

PURPORT

Sañjaya informed King Dhṛtarāṣṭra very tactfully that his unwise policy of deceiving the sons of Pāṇḍu and endeavoring to enthrone his own sons on the seat of the kingdom was not very laudable. The signs already clearly indicated that the whole Kuru dynasty would be killed in that great battle. Beginning with the grandsire, Bhīṣma, down to the grandsons like Abhimanyu and others—including kings from many states of the world—all were present there, and all were doomed. The whole catastrophe was due to King Dhṛtarāṣṭra, because he encouraged the policy followed by his sons.

TEXT 19

sa ghoṣo dhārtarāṣṭrāṇāṁ

hṛdayāni vyadārayat

nabhaś ca pṛthivīṁ caiva

tumulo 'bhyanunādayan

SYNONYMS

saḥthat; ghoṣaḥvibration; dhārtarāṣṭrāṇāmof the sons of Dhṛtarāṣṭra; hṛdayānihearts; vyadārayatshattered; nabhaḥthe sky; caalso; pṛthivīmthe surface of the earth; caalso; evacertainly; tumulaḥuproarious; abhyanunādayanby resounding.

TRANSLATION

The blowing of these different conchshells became uproarious, and thus, vibrating both in the sky and on the earth, it shattered the hearts of the sons of Dhṛtarāṣṭra.

PURPORT

When Bhīṣma and the others on the side of Duryodhana blew their respective conchshells, there was no heart-breaking on the part of the Pāṇḍavas. Such occurrences are not mentioned, but in this particular verse it is mentioned that the hearts of the sons of Dhṛtarāṣṭra were shattered by the sounds vibrated by the Pāṇḍavas' party. This is due to the Pāṇḍavas and their confidence in Lord Kṛṣṇa. One who takes shelter of the Supreme Lord has nothing to fear, even in the midst of the greatest calamity.


अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1 . 16 - 18



अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः |नकुलः सहदेवश्र्च सुघोषमणिपुष्पकौ || १६ ||
काश्यश्र्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः |धृष्टद्युम्नो विराटश्र्च सात्यकिश्र्चापराजितः || १७ ||
द्रुपदो द्रौपदेयाश्र्च सर्वशः पृथिवीपते |सौभद्रश्र्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् || १८ ||
 


अनन्त-विजयम् – अनन्त विजय नाम का शंख; राजा – राजा; कुन्ती-पुत्रः – कुन्ती के पुत्र; युधिष्ठिरः – युधिष्ठिर; नकुलः – नकुल; सहदेवः – सहदेव ने; – तथा; सुघोष-मणिपुष्पकौ – सुघोष तथा मणिपुष्पक नामक शंख; काश्य – काशी (वाराणसी) के राजा ने; – तथा; परम-ईषु-आसः – महान धनुर्धर; शिखण्डी – शिखण्डी ने; – भी; महा-रथः – हजारों से अकेले लड़ने वाले; धृष्टद्युम्नः – धृष्टद्युम्न (राजा द्रुपद के पुत्र) ने; विराटः – विराट(राजा जिसने पाण्डवों को उनके अज्ञात-वास के समय शरण दी ) ने; – भी; सात्यकिः – सात्यकि (युयुधान, श्रीकृष्ण के साथी) ने; – तथा; अपराजितः – कभी न जीते जाने वाला, सदा विजयी; द्रुपदः – द्रुपद, पंचाल के राजा ने; द्रौपदेयाः – द्रौपदी के पुत्रों ने; – भी; सर्वशः – सभी; पृथिवी-पते – हे राजा; सौभादः – सुभद्रापुत्र अभिमन्यु ने; – भी; महा-बाहुः – विशाल भुजाओं वाला; शङखान् – शंख; दध्मुः – बजाए; पृथक्-पृथक् – अलग अलग |
 


भावार्थ

हे राजन्! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनन्तविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक शंख बजाये | महान धनुर्धर काशीराज, परम योद्धा शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र तथा सुभद्रा के महाबाहु पुत्र आदि सबों में अपने-अपने शंख बजाये |

 


 तात्पर्य

 


संजय ने राजा धृतराष्ट्र को अत्यन्त चतुराई से यह बताया कि पाण्डु के पुत्रों को धोखा देने तथा राज्यसिंहासन पर अपने पुत्रों को आसीन कराने का अविवेकपूर्ण नीति श्लाघनीय नहीं थी | लक्षणों से पहले से ही यह सूचित हो रहा था कि इस महायुद्ध में सारा कुरुवंश मारा जायेगा | भीष्म पितामह से लेकर अभिमन्यु तथा अन्य पौत्रों तक विश्र्व के अनेक देशों के राजाओं समेत उपस्थित सारे के सारे लोगों का विनाश निश्चित था | यह सारी दुर्घटना रजा धृतराष्ट्र के कारण होने जा रही थी क्योंकि उसने अपने पुत्रों कि कुनीति को प्रोत्साहन दिया था |


अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1 . 19



स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् |नभश्र्च पृथिवीं चैव तुमुलोSभ्यनुनादयन् || १९ ||
 



सः – उस; घोषः – शब्द ने; धार्तराष्ट्राणाम् – धृतराष्ट्र के पुत्रों के; हृदयानि – हृदयों को; व्य्दारयत् – विदीर्ण कर दिया; नभः – आकाश; – भी; पृथिवीम् – पृथ्वीतल को; – भी; एव – निश्चय ही; तुमुलः – कोलाहलपूर्ण; अभ्यनुनादयन् – प्रतिध्वनित करता, शब्दायमान करता |
 

भावार्थ


इन विभिन्न शंखों की ध्वनि कोलाहलपूर्ण बन गई जो आकाश तथा पृथ्वी को शब्दायमान करती हुई धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण करने लगी |

 


 तात्पर्य

 


जब भीष्म तथा दुर्योधन के पक्ष के अन्य वीरों ने अपने-अपने शंख बजाये तो पाण्डवों के हृदय विदीर्ण नहीं हुए | ऐसी घटनाओं का वर्णन नहीं मिलता किन्तु इस विशिष्ट श्लोक में कहा गया है कि पाण्डव पक्ष में शंखनाद से धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय विदीर्ण हो गये | इसका कारण स्वयं पाण्डव और भगवान् कृष्ण में उनका विश्र्वास है | परमेश्र्वर कि शरण ग्रहण करने वाले को किसी प्रकार का भय नहीं रह जाता चाहे वह कितनी ही विपत्ति में क्यों न हो |
 

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