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Jagai and Mädhäi were two brothers born in Navadvipa in a respectable brahmana family who later became addicted to all kinds of sinful activities. By the order of Lord Caitanya, both Nityananda Prabhu and Haridasa Thakura used to preach the cult of Krsna consciousness door to door. In the course of such preaching they found Jagai and Mädhai, two maddened drunken brothers, who, upon seeing them, began to chase them. On the next day, Mädhäi struck Nityananda Prabhu on the head with a piece of earthen pot, thus drawing blood. When Śrī Caitanya



Mahaprabhu heard of this, He immediately came to the spot, ready to


punish both brothers, but when the all-merciful Lord Gauränga saw Jagai's repentant behavior, He immediately embraced him. By seeing the Supreme Personality of Godhead face to face and embracing Him, both the sinful brothers were at once cleansed. Thus they received initiation into the chanting of the Hare Krsna maha-mantra from the Lord and were delivered.



The mission of the Lord was to deliver the hopelessly fallen souls of Kali-yuga, and the brothers Jagai and Madhai were typical examples of these fallen souls.



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Writer's pictureISKCON ALL IN ONE


युधिष्ठिर ने पूछा: हे वासुदेव! फाल्गुन (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार माघ) के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है और उसका व्रत करने की विधि क्या है? कृपा करके बताइये । भगवान श्रीकृष्ण बोले: युधिष्ठिर ! एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से फाल्गुन के कृष्णपक्ष की ‘विजया एकादशी’ के व्रत से होनेवाले पुण्य के बारे में पूछा था तथा ब्रह्माजी ने इस व्रत के बारे में उन्हें जो कथा और विधि बतायी थी, उसे सुनो : ब्रह्माजी ने कहा : नारद ! यह व्रत बहुत ही प्राचीन, पवित्र और पाप नाशक है । यह एकादशी राजाओं को विजय प्रदान करती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । त्रेतायुग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी जब लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र के किनारे पहुँचे, तब उन्हें समुद्र को पार करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था । उन्होंने लक्ष्मणजी से पूछा : ‘सुमित्रानन्दन ! किस उपाय से इस समुद्र को पार किया जा सकता है ? यह अत्यन्त अगाध और भयंकर जल जन्तुओं से भरा हुआ है । मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे इसको सुगमता से पार किया जा सके ।‘ लक्ष्मणजी बोले : हे प्रभु ! आप ही आदिदेव और पुराण पुरुष पुरुषोत्तम हैं । आपसे क्या छिपा है? यहाँ से आधे योजन की दूरी पर कुमारी द्वीप में बकदाल्भ्य नामक मुनि रहते हैं । आप उन प्राचीन मुनीश्वर के पास जाकर उन्हींसे इसका उपाय पूछिये । श्रीरामचन्द्रजी महामुनि बकदाल्भ्य के आश्रम पहुँचे और उन्होंने मुनि को प्रणाम किया । महर्षि ने प्रसन्न होकर श्रीरामजी के आगमन का कारण पूछा । श्रीरामचन्द्रजी बोले : ब्रह्मन् ! मैं लंका पर चढ़ाई करने के उद्धेश्य से अपनी सेनासहित यहाँ आया हूँ । मुने ! अब जिस प्रकार समुद्र पार किया जा सके, कृपा करके वह उपाय बताइये । बकदाल्भय मुनि ने कहा : हे श्रीरामजी ! फाल्गुन के कृष्णपक्ष में जो ‘विजया’ नाम की एकादशी होती है, उसका व्रत करने से आपकी विजय होगी । निश्चय ही आप अपनी वानर सेना के साथ समुद्र को पार कर लेंगे । राजन् ! अब इस व्रत की फलदायक विधि सुनिये : दशमी के दिन सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टी का एक कलश स्थापित कर उस कलश को जल से भरकर उसमें पल्लव डाल दें । उसके ऊपर भगवान नारायण के सुवर्णमय विग्रह की स्थापना करें । फिर एकादशी के दिन प्रात: काल स्नान करें । कलश को पुन: स्थापित करें । माला, चन्दन, सुपारी तथा नारियल आदि के द्वारा विशेष रुप से उसका पूजन करें । कलश के ऊपर सप्तधान्य और जौ रखें । गन्ध, धूप, दीप और भाँति भाँति के नैवेघ से पूजन करें । कलश के सामने बैठकर उत्तम कथा वार्ता आदि के द्वारा सारा दिन व्यतीत करें और रात में भी वहाँ जागरण करें । अखण्ड व्रत की सिद्धि के लिए घी का दीपक जलायें । फिर द्वादशी के दिन सूर्योदय होने पर उस कलश को किसी जलाशय के समीप (नदी, झरने या पोखर के तट पर) स्थापित करें और उसकी विधिवत् पूजा करके देव प्रतिमासहित उस कलश को वेदवेत्ता ब्राह्मण के लिए दान कर दें । कलश के साथ ही और भी बड़े बड़े दान देने चाहिए । श्रीराम ! आप अपने सेनापतियों के साथ इसी विधि से प्रयत्नपूर्वक ‘विजया एकादशी’ का व्रत कीजिये । इससे आपकी विजय होगी । ब्रह्माजी कहते हैं : नारद ! यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने मुनि के कथनानुसार उस समय ‘विजया एकादशी’ का व्रत किया । उस व्रत के करने से श्रीरामचन्द्रजी विजयी हुए । उन्होंने संग्राम में रावण को मारा, लंका पर विजय पायी और सीता को प्राप्त किया । बेटा ! जो मनुष्य इस विधि से व्रत करते हैं, उन्हें इस लोक में विजय प्राप्त होती है और उनका परलोक भी अक्षय बना रहता है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! इस कारण ‘विजया’ का व्रत करना चाहिए । इस प्रसंग को पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है ।

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