Bhagavad Gita chapter 1 text 40
Day 22 ( January 22 )
TEXT 40
adharmābhibhavāt kṛṣṇa
praduṣyanti kula-striyaḥ
strīṣu duṣṭāsu vārṣṇeya
jāyate varṇa-saṅkaraḥ
SYNONYMS
adharma—irreligion; abhibhavāt—having been predominant; kṛṣṇa—O Kṛṣṇa; praduṣyanti—become polluted; kula-striyaḥ—family ladies; strīṣu —of the womanhood; duṣṭāsu—being so polluted; vārṣṇeya—O descendant of Vṛṣṇi; jāyate—it so becomes; varṇa-saṅkaraḥ—unwanted progeny.
TRANSLATION
When irreligion is prominent in the family, O Kṛṣṇa, the women of the family become corrupt, and from the degradation of womanhood, O descendant of Vṛṣṇi, comes unwanted progeny.
PURPORT
Good population in human society is the basic principle for peace, prosperity and spiritual progress in life. The varṇāśrama religion's principles were so designed that the good population would prevail in society for the general spiritual progress of state and community. Such population depends on the chastity and faithfulness of its womanhood. As children are very prone to be misled, women are similarly very prone to degradation. Therefore, both children and women require protection by the elder members of the family. By being engaged in various religious practices, women will not be misled into adultery. According to Cāṇakya Paṇḍit, women are generally not very intelligent and therefore not trustworthy. So, the different family traditions of religious activities should always engage them, and thus their chastity and devotion will give birth to a good population eligible for participating in the varṇāśrama system. On the failure of such varṇāśrama-dharma, naturally the women become free to act and mix with men, and thus adultery is indulged in at the risk of unwanted population. Irresponsible men also provoke adultery in society, and thus unwanted children flood the human race at the risk of war and pestilence.
अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण
श्लोक 1 . 40
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः |
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसड्करः || ४० ||
अधर्म – अधर्म; अभिभावत् – प्रमुख होने से; कृष्ण – हे कृष्ण; प्रदुष्यन्ति – दूषित हो जाती हैं; कुलस्त्रियः – कुल की स्त्रियाँ; स्त्रीषु – स्त्रीत्व के; दुष्टासु – दूषित होने से; वार्ष्णेय – हे वृष्णिवंशी; जायते – उत्पन्न होती है; वर्ण–सङकरः – अवांछित सन्तान |
भावार्थ
हे कृष्ण! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और स्त्रीत्व के पतन से हे वृष्णिवंशी! अवांछित सन्तानें उत्पन्न होती हैं |
तात्पर्य
जीवन में शान्ति, सुख तथा आध्यात्मिक उन्नति का मुख्य सिद्धान्त मानव समाज में अच्छी सन्तान का होना है | वर्णाश्रम धर्म के नियम इस प्रकार बनाये गये थे कि राज्य तथा जाति की आध्यात्मिक उन्नति के लिए समाज में अच्छी संतान उत्पन्न हो | ऐसी सन्तान समाज में स्त्री के सतीत्व और निष्ठा पर निर्भर करती है | जिस प्रकार बालक सरलता से कुमार्गगामी बन जाते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी पत्नोन्मुखी होती हैं | अतः बालकों तथा स्त्रियों दोनों को ही समाज के वयोवृद्धों का संरक्षण आवश्यक है | स्त्रियाँ विभिन्न धार्मिक प्रथाओं में संलग्न रहने पर व्यभिचारिणी नहीं होंगी | चाणक्य पंडित के अनुसार सामान्यतया स्त्रियाँ अधिक बुद्धिमान नहीं होतीं अतः वे विश्र्वसनीय नहीं हैं | इसलिए उन्हें विविध कुल-परम्पराओं में व्यस्त रहना चाहिए और इस तरह उनके सतीत्व तथा अनुरक्ति से ऐसी सन्तान जन्मेगी जो वर्णाश्रम धर्म में भाग लेने के योग्य होगी | ऐसे वर्णाश्रम-धर्म के विनाश से यह स्वाभाविक है कि स्त्रियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक पुरुषों से मिल सकेंगी और व्यभिचार को प्रश्रय मिलेगा जिससे अवांछित सन्तानें उत्पन्न होंगी | निठल्ले लोग भी समाज में व्यभिचार को प्रेरित करते हैं और इस तरह अवांछित बच्चो की बाढ़ आ जाती है जिससे मानव जाति पर युद्ध और महामारी का संकट छा जाता है |
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